Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 111
________________ लगता है । चावल में पकने का स्वभाव भी होना ही चाहिये भवितव्यता भी अनुकूल ही चाहिये । कहीं स्टवादि फटकर दुर्घटना न हो जाय । तथा करने वाले का पूर्वोपार्जित प्रबल भाग्य भी चाहिए । चावलादि की प्राप्ति भी होनी चाहिए । तथा ईधनादि लाना, पानी लाना, चढ़ाना आदि प्रयत्न-पुरुषार्थ भी करना ही पड़ेगा। वैसे ही दूसरा दृष्टांत लो-बेटे को पढ़ाना है । पण्डित बनाना है । तो एक ही दिन में पण्डित नही बनेगा काल ५-१०-१२ साल लगेंगे । बेटे का पढ़ने का स्वभाव भी होना चाहिए । पढ़ाई में उसकी रूचि चाहिए । नियति में-देश-क्षेत्र भी योग्य हो जहां स्कूल-कालेज आदि एवं शिक्षकादि उपलब्ध होने चाहिए । पूर्वकृत कर्मानुसार बेटे की बुद्धि भी अच्छी होनी चाहिए । यादशक्ति भी अच्छी हो। तथा पांचवां पुरुषार्थ होना भी जरूरी है। वह नियमित २-४ घंटे पढ़े। खेलने में ही समय न. बिता दे । इस तरह कोई भी उदाहरण लीजिए इन पांचों समवायि कारणों का कार्य के लिए होना अपेक्षित है। तभी कार्य होगा। अतः कर्मवाद में भी ये पांचों अपेक्षित है । एक मात्र अकेला कर्म ही सब कुछ नहीं हैं । एक बीज बोया लेकिन उसके फलित होने में भूमि, हवा, प्रकाश, पानी आदि जिस तरह सहयोगी-उपयोगी कारण है उसी तरह एक कर्म के लिए भी कालादि सहयोगी कारण है। चाहे कर्म का बंध हो या कर्म का उदय हो चाहे सुख हो या दुःख हो उसमें भी कालादि पांचों कारण बाह्यदृष्टि से अलग-अलग स्वतंत्र दिखाई देते हुए भी तात्विक दृष्टि से पांचों ही हिलमिलकर समुदित रूप से ही कार्योत्पत्ति में कारण बनते है। अत: अलग-अलग मानना, या एक को मानना और दूसरे को न मानना यह भी ठीक नहीं है। संयुक्त रूप से पांचों मानना, यही सम्यक् पक्ष है । कभी कभी अत्यधिक पुरुषार्थ करने पर भी जब कार्य सिद्धि नहीं होती तब पूर्व कर्म को बलवान मानना पड़ता है । उसी तरह कभी पूर्व कर्म कमजोर हो, शिथिल हो तो नया पुरुषार्थ उसे भी बदल देता है । इस तरह गौण-मुख्य भाव की प्राधान्यता से पांच समवायिकारणवाद को स्वीकारना सम्यक् पक्ष है। कर्म का कर्ता कौन ? ईश्वर कर्तृत्ववाद के बारे में काफी विस्तार से परामर्श तर्क-युक्ति पूर्वक किया है । जिससे स्पष्ट निष्कर्ष यह निकलता है कि ईश्वर न तो सृष्टि का कर्ता है और न ही जीवों का कर्ता, तथा जीवों के शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी वह नहीं है। उसी तरह जीवों को कर्म का फल देने वाला फलदाता भी वह सिद्ध नहीं हो सकता। यद्यपि गीता में कर्तृत्ववाद के ही आधार पर श्रीकृष्णजी अर्जुन को कह रहे हैं ११० कर्म की गति न्यारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178