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धीन होकर वसे शुभाशुभ कर्म करता है । अतः कालान्तर में उस किये हुए कर्मो का फल भी जीव स्वयं ही पाता है । पूर्वोपार्जित कमनुवार जीव स्वर्ग-नरक में जाता है । तथा प्रकार के सुख-दुःख भोगता है। ईश्वर की बीच में आवश्यकता ही नहीं है । हां उसना के लिए, परम आलम्बन के स्वरूप में उपास्य तत्त्व के रूप में परमात्मा-परम विशुद्ध राग-द्वेष रहित वीतराग - सर्वज्ञ भगवान का उपासना के लिए हम आलम्बन अवश्य लें जिससे कर्मक्षय में वसी सुन्दर प्रेरणा प्राप्त हो । उसके जैसा बनने की दिशा प्राप्त हो इसलिए परमात्मा-परमेश्वर की उपासना आवश्यक है । जाप स्तुति-पूजा - पूजन-ध्यानादि उपासना के तरीके है । इन माध्यमों से उपासना होगी । ऐसी उपासना में उपास्य तत्व परमात्मा को, आलम्बन - उच्च ही नहीं सर्वोच्च आदर्श के रूप में बिराजमान करने के लिए सुन्दर मन्दिर होना जरूरी है । सुन्दर मन्दिर में प्रभु की सुन्दर प्रतिमा, 'अर्थात् प्रभु की प्रतिकृति होना भी आवश्यक है । वही आलम्बन है । भाव विशुद्धि आदि के लिए द्रव्य के माध्यम से भक्ति-पूजा - दर्शन आदि आवश्यक है । अत: निष्कर्ष यह निकलता है कि जीवों के कर्म का कर्ता ईश्वर नहीं जीव स्वयं है । सुख - दुःख का कर्ता भी जीव स्वयं है । फल दाता भी ईश्वर नहीं जीव स्वयं है । चेतनात्मा ही स्वयं कर्म का कर्ता है । वही कर्म करता है । और कृत कर्मों का फल भी वही भोगता है । यही जीव का स्वरूप बताते हुए हरीभद्रसूरि महाराज ने लिखा है कि
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यः कर्ता कर्म भेदानां भोक्ता कर्म फलस्य च ।
संसर्ता परिनिर्वाता सह्यात्मा नान्य लक्षणः ॥
जो स्वयं कर्म का कर्ता हो, और किये हुए कर्मों के फल का भोक्ता हो, तथा जो संसार में सतत परिभ्रमण करता हो वही संसारी जीव है । कर्म एक क्रिया विशेष जन्य है ! अतः क्रिया अपने आप हो नहीं सकती । क्रिया का कोई न कोई कर्ता होना ही चाहिए। वह कर्ता ईश्वर नहीं जीव है । जीवात्मा ही कर्म करती है। और किये हुए कर्मों का फल भी वह स्वयं भोगती है ।
कर्म सत्ता न मानें तो क्या ?
रोटी न खाएं तो क्या होगा ? भोजन न करें तो क्या होगा ? शादी न करें तो क्या होगा ? पढ़ाई न करें तो क्या होगा ? व्यापार-नौकरी न करें तो क्या होगा ? खांना, भोजन करना, पढ़ाई करना, नौकरी करना मादि क्रियाएं है । इन सभी क्रियाओं का कर्ता तो एकमात्र जीव है । जीव
कर्म की गति न्यारी
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