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. हैं । ठीक उसी तरह सुख के लिए जीव के शुभ कर्म कारण है । शुभ कर्म को ही शास्त्रीय परिभाषा में पुण्य कहते हैं । अतः पुण्यानुसार ही सुख प्राप्त होता है ।
कार्य - सुख - दुःख
कारण - शुभ (पुण्य) कर्म – अशुभ (पाप) कर्म इसलिए शुभ पुण्य-कर्म सुखरूपी कार्य का कारण सिद्ध होता है । उसी तरह दुःख भी कार्य है । इसका कारण अशुभ पाप कर्म है । अशुभ पाप कर्म जीव ही उपार्जित करता है । उसी कारण दुःख भोगता है । इसलिए दुःख का एकमात्र कारण जीव द्वारा उपार्जित अशुभ कर्म ही है । कार्य का कारण के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रहता हैं । उसी तरह सुख-दुःख रूप कार्य का शुभाशुभ कर्म ही कारण हो सकता है। सुख-दुःख का अविनाभाव सम्बन्ध शुभाशुभ कर्म के साथ निश्चित रूप से है । शुभाशुभ कर्म नहीं रहेंगे तो सुख दुःख रूपी कार्य भी नहीं रहेंगे । अतः यही न्याय संगत सिद्ध होता है । अन्य कोई भी कारण सिद्ध हो नहीं सकता। ईश्वरादि अविनाभाव सम्बन्ध भी नहीं गिने जाएंगे। कालादि भी सम्भव नहीं है । कार्य के लिए कारण अनन्यथा सिद्ध नियत पूर्ववर्ती होता है। कारण का लक्षण ही "अनन्यथासिद्धत्वे सति नियतपूर्ववर्तित्वं कारणस्यलक्षणं" बताया गया है । इस तरह भी सोचें तो सु:ख-दुःखात्मक कार्य के लिए अनन्यथासिद्ध नियतपूर्ववति कारण शुभाशुभ कर्म ही हो सकता है । अतः सुख-दुःख के आधार पर कर्म की सिद्धि होती है ।
सुख-दुःख वाला जो सुखी-दुःखी व्यक्ति विशेष उसी के उपाजित शुभाशुभ कर्म का यह कार्य है । अतः किसी को सुखी देखें तब यह कारण समझना चाहिये कि इस जीव ने शुभ पुण्य कर्म उपाजित किया है । जो भूतकाल में किया था और आज वर्तमान में यह. सुख रूप फल भोग रहा है । किसी दीन-दुःखी दरिद्र को देखकर उसने अशुभ पाप कर्म उपार्जित किया होगा अतः उस कर्मानुसार आज यह दुःखी है । अग्नि के लिए धूम का प्रत्यक्ष होना जिस तरह अनिवार्य है उसी तरह कर्म के अनुमान के लिए सुखी दुःखी का प्रत्यक्ष होना अनिवार्य है । अतः सुखी-दुःखो को प्रत्यक्ष देखकर शुभाशुभ कर्मों का सही ज्ञान होता है । ये कर्म चाहें एक व्यक्ति के हों या चाहे समष्टि के हों । संसार में अनन्त जीव है। अनन्त जीव सभी कर्मग्रस्त है । सभी कर्म बांधते हैं अतः सभी कर्म फल भोगते हैं । अब यह सोचें कि कर्म क्या है ? जीव क्या है ? क्यों जीव कर्म बांधता है ? यह संसार क्या है ? इस संसार में क्या है ? इत्यादि ।
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कर्म की गति न्यारी