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होते हैं । अतः राग-द्वेष के आधीन होकर आत्मा कई कर्मो का आश्रव करती है । इस प्रकार के राग-द्व ेष में इन्द्रियां निमित्त बनी है अतः इन्द्रियाश्रव कहलाएगा । यह ५ प्रकार का है ।
(२) कषायाश्रव - क्रोध- मान-माया-लोभ ये ४ कषाय है । कष + प्राय = कषाय । कष = अर्थात् संसार और आय अर्थात् = लाभ । अर्थात् कषाय का अर्थ संसार का लाभ होता है । आत्मा इन क्रोधादि कषायों के आधीन जब भी होती है तब आत्मा का संसार बढ़ता है । इसलिए ये कत्राय भी आत्मा में कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को खींचकर लाने का आश्रव का कार्य करते हैं । अतः चार प्रकार का कषायाश्रव कहलाता है ।
(३) अव्रताश्रव - व्रत ५ है । श्रहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य - अपरिग्रह ये ५ व्रत धर्मस्वरूप है । आत्मा इनमें रहे तो कर्माश्रव नही होता है । उपर से कर्म क्षय होता है । परन्तु सभी जीव इन पांच व्रतों में नहीं रहते । अधिकांश जीव इनसे विपरीत व्रतों में रहते है । अ + व्रत = अव्रत । अर्थात् व्रत का अभाव = व्रत । व्रत से विपरीत चलना यह अव्रती का कार्य है । हिंसा - झू 5 – चोरी - मैथून सेवन तथा परिग्रहवृत्ति ये पांच अव्रत है । व्रत से सर्वथा विपरीत प्रव्रत है । जीव जब हिंसा - झूठ. चोरी आदि अव्रतों का आचरण करता है तब आत्मा में कार्मण - वर्गणा का आश्रव होता है। काफी ज्यादा प्रमाण में कर्म लगते हैं । अतः ५ प्रकार के हिंसादि अव्रताश्रव है ।
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(४) योगाश्रव - मन, वचन और काया (शरीर ) ये ३ योग कहलाते हैं । संसारी जीवों को ये तीन साधन मिलते हैं । प्रत्येक जीव को शरीर तो श्रवश्य मिलता ही है । बिना शरीर के कोई जीव संसार में रहता ही नहीं है । अशरीरी सिर्फ सिद्ध - मुक्त ही कहलाते हैं । द्वीन्द्रिय से उपर के जीवों को दूसरा वचन योग मिलता है । तथा सिर्फ संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों को ही मन मिलता है । इस तरह ये ३ साधन जीवों को मिलते हैं । इन्हीं के जरिए जीन कर्मबन्ध या कर्मक्षय की प्रवृत्ति करता है । तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में कहा है- “काय - वाड़ - मनः कर्मयोग : " | काया वचन और मन के द्वारा जीव कर्म से जुड़ता है । कर्मयोग इनके माध्यम से होता है । अशुभ पाप कर्म भी ये ३ ही बंधाते है और शुभ पुण्य कर्म भी ये ३ ही बंधाते हैं । अतः योगाश्रव में इन ३ को आश्रव का कारण गिना है ।
(५) क्रियाश्रव - संसारी जीव विविध प्रकार की क्रियाएं करता है । गमना
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कर्म की गति न्यारी