Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 159
________________ To Envolve. इसका अर्थ है मिलना। परन्तु यह मिलना ऐसा है कि वस्तु अपना स्वरूप खो नहीं बैठती। स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए मिलता है। एक व्यक्ति चारों में Envolve है । अर्थात् मिला हुआ है । दूसरी क्रिया है। To Desolve इसका अर्थ है पिघल जाना । एक रस हो जाना। शक्कर दूध में Desolve हो गई। उसी तरह कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणु पहले आत्मा में Envolve होते हैं फिर कर्म बंध के मिथ्यात्वादि हेतु से Desolve होते हैं । एक रस हो जाते हैं। उदाहरणार्थ हम भोजन करते हैं । उदर में यकृत आदि में उसकी रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है । आंतों के अन्दर उस आहार का पाचन हो जाता है । रस निर्माण होता है। वह रस रूधिरादि में परिणत होता है । नाडियों में रक्त खिचा जाता है । इस तरह एक आहार रस-रूधिर-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा तथा वीर्य रूप सप्त . धातुओं में परिणत होता है । यह परिणमन रासायनिक प्रक्रिया विशेष से चलता रहता है । जो आहार हम ग्रहण करते हैं उसमें से रस-रुधिर आदि सप्त धातुएं बनने के बाद अतिरिक्त आहार-पानी मल-मूत्र में परिणत होता है । जो शरीर की विसर्जन क्रिया करने वाले अवयवों के द्वारा विसर्जित किये जाते हैं । रक्त परिभ्रमण सारे शरीर में होता रहता है। सर्व धातुओं की पुष्टि होती रहती है। स्थूल रस अपने स्थान पर रहता है और सूक्ष्म रस धातु में मिश्रित होता जाता है । आहार में होती हुई इस रासायनिक क्रिया में ग्रहण-परिणमन की रासायनिक प्रक्रिया चलती है । दो पृथक् पृथक् वस्तुओं में एक का आकर्षित होने का दूसरी का आकर्षित कर खिंचने का स्वभाव विशेष है। इसलिए दो का संबंध होता है । आत्मा का आकर्षित करने का खिंचने का स्वभाव है और कार्मण वर्गणा आदि अष्ट वर्गणाओं के पुद्गल परमाणुओं का आकर्षित होने का खिचे जाने का स्वभाव विशेष है। जैसे चुम्बक का स्वभाव है । चुम्बक आकर्षित करता है, और लोह कण आकर्षित होते हैं । खिचे जाते है और आकर चुम्बक के स्मथ चिपक जाते है । प्रात्मिक करणवीर्य आत्मिक करणवीर्य जो मन-वचन-काया की प्रवृत्ति रूप है उससे आत्मा में तथा प्रकार का कंपन निर्माण होता है। छद्मस्थ संसारी जीवों का छाद्मस्थिक वीर्य जो सलेश्य-लेश्या सहित होता है। वह सकषायि और अकषायि उभय रूप होता है । यह सलेश्य क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भाव से दो प्रकार का होता है । अभिसंधिज और अनभिसंधिज । उबलते हुए पानी में जैसा कंपन होता है वैसा कंपन कर्मसंयोग से आत्म प्रदेशों में सतत चालु रहता है। इस कंपन का असर शारीरिक, १५८ कर्म की गति न्यारी

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