Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 146
________________ (२) आत्मा के अनन्त दशन गुण को ढकने वाले कर्म को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। (३) आत्मा के अनन्त चारित्र गुण को ढकने वाले कर्म को चारित्रावरणीय कर्म भी कहते है । या दूसरी रीत से आत्मा के प्रव्याबाध स्वरूप को जो कि शुद्ध स्वरूप है उसे रोक कर मोहग्रस्त करने वाले कर्म को मोहनीय कर्म कहते हैं । (४) आत्मा में अनन्त वीर्य गुण है। वीर्य यहां शक्ति अर्थ में प्रयुक्त है । इस अनन्त वीर्य गुण का आवरक अर्थात् अवरोधक अन्तराय कर्म के नाम से पहचाना जाता है । अन्तराय करना अर्थात् विघ्न डालना । अवरोध करना । इस पर से अन्तराय कर्म नाम पड़ा। यह आत्मा की शक्तियों को उपलब्धियों को, प्रगट होने में विघ्न अन्तराय करता है। (५) चेतन आत्म द्रव्य स्वस्वरूप से अनामी है। अरूपी है । आत्मा का कोई नाम नहीं है । आकार विशेष भी नहीं है। आत्मा का कोई रंग-रूप भी नहीं है। आत्मा कोई हाथ-पैर वाली आकृति विशेष भी नहीं है। फिर भी आत्मा को रूपरंग वाला, नाम-आकृति-गति-जाति-शरीरादि वाला बनाने का काम करने वाला नाम कर्म है। (६) आत्मा हल्की-भारी भी नहीं है । ऊंच-नीच-छोटे-बड़े आदि का आत्मा से कोई संबंध नहीं है । ऐसी अगुरुलघु स्वभाव वाली आत्मा को उच्च वर्ण (जाति) कुल तथा नीच वर्ण-कुल-जाति आदि में ले जाने वाला गोत्र कर्म है। यह छोटा है, यह इससे बड़ा है । जाति-कुल में ऊंच-नीच का भेदभाव गोत्र कर्म कराता है। (७) आत्मा अनन्त सुखस्वरूप है । अनन्त रूप से सुख आत्मा में भरा पड़ा है । आनन्द ही आनन्द है । आनन्दघन स्वरूप, सच्चिदान द स्वरूप, चिदानन्द स्वरूप आत्मा का सुख अव्याबाध है । अर्थात् किसी से व्याबाध पाने वाला नहीं है। परन्तु संसारी अवस्था में ४ गति में भिन्न-भिन्न गति-जाति में सुख-दुःख का शाता-अशाता का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है। जो वेदना-संवेदना पीड़ा, सुख-दुःखादि का अनुभव कराता है वह वेदनीय कर्म है। (6) आत्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। आकाश के उड़ते पक्षी की तरह स्वरविहारिणि आत्मा को एक देहपिंजर में नियत काल तक बन्दिस्त बनाकर रखने का काम आयुष्य कर्म का है । अक्षय=अ+क्षय-अक्षय । कभी भी क्षय अर्थात् नाश न होने कर्म की गति न्यारी १४५

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