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जिससे इन्द्रियां हीन मिलती है । क्षीण होती है । दिखाई देना, सुनाई देना आदि कार्य में बाधा पहुँचती है ।
અલિપ્ત તલવાર જેવું
(३) मधुलिप्त तलवार जैपा वेदनीद कर्म - जैसे एक मनुष्य तलवार पर मधु को लगाकर चाट रहा है। मधु मधुर लगता है तब तक चाट रहा है । परन्तु मधु समाप्त होने पर स्वादासक्ति के कारण चाटते रहने पर जब जीभ कट जाती है तब निकलते खून के कारण वेदना होती है । पीड़ा होती है । मधु चाटते समय सुखआनन्द और मधु की समाप्ति के बाद जीभ कटने पर दुःख होता है । ठीक उसी तरह आत्मा पर वेदनीय कर्म है | वेदना - संवेदना सुखात्मक और दुःखात्मक उभय प्रकार की होती है | वेदनीय कर्म के दो कार्य है । सुखानुभव को शाता वेदनीय और दुःखानुभव को अशाता वेदनीय कर्म कहते हैं । अतः वेदनीय कर्म को मधुलिप्त तलवार की उपमा दी गई है ।
વંદનીયકર્મ
મદિરાવું
(४) मदिरापान के जैसा मोहनीय कर्म - मोहनीय कर्म का स्वभाव मदिरापान किये हुए मनुष्य के जैसा है । जैसे एक मनुष्य शराब पीता है । शराब से शराबी विवेक - भान-भूल जाता है । और अंट-संट बकने लगता है | बोलने का भी विवेक नहीं और क्रिया व्यवहार का भी विवेक नहीं रहता उसी तरह मोहनीय कर्म से ग्रस्त जीव का अनन्त चारित्र गुण ढक जाता है । परिणाम स्वरूप वास्तविकता - यथार्थता भूलकर मिथ्या प्रवृत्ति करता है । जो मेरा नहीं है उसे भी मेरा मानता है । मेरेपने की ममत्व - मोहवाली बुद्धि बन जाती है । यही मोहनीय कर्म का स्वभाव एवं कार्य मदिरापान किये हुए
મોહનીયર્મ
मनुष्य के जैसा है ।
(५) बेड़ी (हथकड़ी) जैसा - श्रायुष्य कर्म - एक अपराधी को पकड़कर हथकड़ी लगाकर जेल में डाल दिया जाता है । घूमने-फिरने वाला मनुष्य जिस तरह जेल में बंदिस्त - कैदी होकर पड़ा रहता है । निश्चित काल अवधि तक सजा भोगता रहता है । उसी तरह अक्षय स्थिति गुण वाले जीव को आयुष्य कर्म काल
कर्म की गति न्यार।
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