Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

Previous | Next

Page 131
________________ संस्थान अणुओं का स्कंध संख्याताणुकस्कंध एवं असंख्याताणुकस्कंध कहे जाएंगे । उसी तरह अनन्त अणुओं से बने हुए स्कंध पुद्गल पदार्थ को अनन्ताणुकस्कंध पदार्थ कहेंगे । इन परमाणुओं में संघट्टन (संघात ) - विघट्टन (विघात) की क्रिया सदा ही होती रहती है । अत: संघट्टन की क्रिया से कई परमाणु संमिश्रित होकर स्कंध तूटकर पुन: परमाणु स्वरूप में आकर स्वतन्त्र रहते हैं । इस तरह जुडना ओर बिखरना यह पुद्गल का स्वभाव ही है । यहां जैनों ने परमाणु की संघट्टन - विघट्टन आदि क्रिया में नैयायिकों की तरह ईश्वरेच्छा मानने की मूर्खता नहीं की है । जबकि पुगल का अपना स्वभाव ही है, उसी की क्रिया है फिर ईश्वरेच्छा मानने की आवश्यकता ही क्या है ? परमाणु और स्कंध रूप अस्तित्व वाले पुद्गल पदार्थ का भिन्न-भिन्न रूप से जैन दर्शन शास्त्र में वर्गीकरण - विभाजन किया गया है । अनेक परमाणु संमिश्रितसम्मिलित होकर समूह रूप में पिण्डीत रूप में रहे उसे स्कंध कहते हैं । समान संख्या प्रमाण परमाणु वाले स्कंधों की एक वर्गणा बनती हैं वर्गणा अर्थात् अनेक परमाणुओं के समूह विशेष को महावर्गणा कहते हैं । समस्त ब्रह्माण्ड में ऐसी १६ महावर्गणाएं है यह जैन शास्त्रों में बताया गया हैं । १३० (१) औदारिक अग्रहण योग्य महावर्गणा । (२) औदारिक ग्रहण योग्य महावर्गणा । (३) दारिक तथा वैक्रिय शरीर के लिए अग्रहण योग्य महावर्गणा । (४) वैक्रिय शरीर के लिए ग्रहण योग्य महावर्गणा । (५) वैक्रिय तथा आहारक शरीर के लिए अग्रहण योग्य महावर्गणा । (६) आहारक शरीर के लिए ग्रहण योग्य महावर्गणा । . (७) आहारक तथा तैजस शरीर के लिए अग्रहण योग्य महावर्गणा । (८) तैजस शरीर के लिए ग्रहण योग्य महावर्गणा । (९) तैजस शरीर और भाषा के लिए अग्रहण योग्य महावर्गणा । 4 (१०) भाषा के लिए ग्रहण योग्य महावर्गणा । (११) भाषा और श्वासोच्छवास के लिए अग्रहण योग्य महावर्गणा । (१२) श्वासोच्छ्वास के लिए ग्रहण योग्य महावर्गणा । (१३) श्वासोच्छवास और मन के लिए अग्रहण योग्य महावगंणा । कर्म की गति न्यारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178