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पंख जिस तरह फैलने पर लम्बे दिखाई देते हैं । और सिकोडने पर छोटे हो जाते हैं । समेट कर बन्द कर लेता है । मोर अपने पंख फैलाता है तब कितना क्षेत्र रोकता है और समेट लेता है तब कितनी जगह घेरता है । दूसरा भी एक दृष्टांत है जब एक बल्ब को हॉल में लगाते हैं तो उसका प्रकाश पूरे हॉल में फैलता है । उसे ही यदि १०' x १०' की रूम में लगा दें तो प्रकाश रूम के क्षेत्र में ही फैलेगा । उसी तरह यदि उस बल्ब को एक छोटे बक्से में रखकर प्रज्वलित किया जाय तो प्रकाश सिर्फ उस बक्से में ही फैलेगा । प्रकाश, के विस्तार का आधार क्षेत्र पर है । उसी तरह आत्मा के असंख्य प्रदेशों के विस्तार का आधार मिले हुए शरीर पर आधारित हैं । केवलि समुद्घात आदि करते समय आत्मा आत्म प्रदेशों को फैलाकर चौदह राजलोक व्यापी बना देती है । इतना विस्तार कर सकती है ।
अनन्त काल में अनन्त कार्मण वर्गणाएं खिंचकर अनन्त बार जीव ने कर्म बांधे और अनन्त बार सकाम या अकाम निर्जरा करके कर्म खपाए । वे ही कार्मण वर्गणाएं निर्जरित होते समय आत्म प्रदेशों को छोड़कर जाते समय एक आत्म प्रदेश को भी खिंचकर नहीं ले जा सकते । अतः अनन्त काल में भी आत्मा का एक प्रदेश भी छूटकर अलग नहीं होता । इसीलिए आत्मा एक अखण्ड असंख्य प्रदेशी द्रव्य है ।
कार्मण वर्गणा का ग्रहण
कर्तृत्व- भोक्तृत्व भाव जीव का गुण है अतः जीव ही कर्ता-भोक्ता कहलाता
है । आत्मा में ही राग-द्व ेषादि के द्वारा तथा प्रकार के संदन होते हैं जिससे बाहरी प्रदेश में रही हुई कार्मण वर्गणा को आत्मा खिचती है । समस्त चौदह राजलोक के इस अतन्त ब्रह्माण्ड में कर्म योग्य कार्मण वर्गणा जो पुद्गल परमाणु के रूप में भरी पड़ी हैं । काजल की डिब्बी में भरी हुई काजल
तरह ठूस ठूस कर भरी पड़ी है । उसी कार्मण वर्गणा
कर्म की गति न्यारी
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