Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 118
________________ लोक-प्रलोक स्वरूप अनन्ताकाश स्वरूप लोक है । लोक शब्द यहां क्षेत्र वाची है। इस अनन्त आकाश के दो विभाग किये जाते हैं। एक अलोक एवं दूसरा लोक । अलोक एवं लोक इन दोनों शब्दों के साथ आकाश शब्द जोड़कर एक शब्द बनाकर व्यवहार करें तो (१) अलोकाकाश एवं (२) लोकाकाश शब्द बनेंगे। जिस क्षेत्र का अन्त ही नहीं है वह अनन्त आकाश स्वरूप है । जिस लोक में रहने वाली कोई भी वस्तु नहीं रहती वह अलोक है। जीव या अजीव, अलोक में कुछ भी नहीं रहता है अर्थात् एक सूक्ष्म जीव भी अलोक में नहीं रहता है उसी तरह अजीव तत्त्व के पुद्गल का सूक्ष्म परमाणु भी जहां नहीं रहता है वह अलोक है। तो फिर अलोक में क्या है ? इसका उत्तर इसीके वाचक शब्द से मिल जाता है । मलोक+आकाश=अलोकाकाश अर्थात् अलोक में सिर्फ आकाश है । आकाश आधार द्रव्य है । जो जीव-अजीव द्रव्यों का आधार है । आकाश अवकाश देता है । जीव एवं अजीव को रहने के लिए स्थानजगह प्रदान करना इसका गुण है । परन्तु अलोक में जीव अजीव दोनों ही नहीं है अतः जगह दे तो भी किसको दे ? इसीलिए अलोक कहलाता है । इस प्रलोक का आकाश रिक्त आकाश कहलाता है । अतः इसे शून्याकाश भी कहते है । शून्य अर्थात् रिक्त स्थान । खाली जगह । जहां कुछ भी नहीं है। सिर्फ यह अलोकाकाश अनन्त है । इसका अन्त ही नहीं है। सीमातीत है । लोक स्वरूप इस अनन्त अलोकाकाश के केन्द्र में लोक है । जैसा कि चित्र में दिखाया गया GI5131 6યાકર લોકાકા EMIFIDIME ON कर्म की गति न्यारी ११७

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