Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04 Author(s): Arunvijay Publisher: ZZZ UnknownPage 83
________________ 1 जिस मां के खून से जो बालक बना है, और बड़े भारी कष्ट सहन करते हुए जिस मां ने सन्तान को अपने गर्भ में साडे नौ महिने धारण करके रखा है, जिस बालक के वात्सल्य से, स्नेह से माता के स्तन में दूध बना है । श्राज दिन तक जब तक संतान नहीं थी माता नहीं बनी थी तब तक जो दूध निर्माण ही नहीं हुआ था वह दूध आज संतानोत्पत्ति एवं वात्सल्य स्नेह के कारण बना है वह दूध अपने सीने से बालक को पिलाने वाली मां क्या बालक को मार डालने का विचार भी करेगी ? क्या बालक का गला घोंटने का वह स्वप्न में भी सोचेगी ? सोचे तो मां का मातृत्व कहां गया ? अजी मां की बात तो छोडीए - पशु-पक्षी में भी यह स्नेह प्रकट देखा जाता है । गायभैंस - घोड़ा गधा भी अपने संतान को जीभ से चाट कर स्नेह व्यक्त करते हैं । वे पशु होते हुए भी संतान को मार नहीं डालते । तो फिर जो ईश्वर है वह अपने द्वारा उत्पन्न की हुई इस सृष्टि का संहार कर दे यह कैसे संभव है । जबकि ईश्वर को ही जगत् का पिता कहा जाय, त्वमेव माता-पिता त्वमेव कहा जाय वह ईश्वर पुत्रवत् अपनी सृष्टि का संहार करे यह कैसे संभव है ? अच्छा मान भी लें कि पशु-पक्षी या माता नरपिशाची, राक्षसी, चुडैल, स्वसंतान भक्षक बन भी जाय लेकिन जो दयालु है, करुणालु है, दया का सागर है, करुणा का भण्डार है ऐसा ईश्वर स्व निर्मित, अपने द्वारा उत्पन्न की हुई इस सृष्टि जिसमें अनन्त जीव हैं उन सबको मारने का संहारकारी-प्रलयकारी कार्य क्यों करे ? ऐसे कार्य के कारण के रूप में जब कोई हेतु नहीं मिला तो एक मात्र लीला शब्द का प्रयोग कर दिया। लेकिन सिर्फ लीला शब्द मनः समाधान कारक नहीं है । जबकि सृष्टि निर्माण करने के कार्य के लिए इच्छा एवं दयालु और करुणालु हेतु दिए थे तब उचित लगते भी थे, लेकिन संहारप्रलय कार्य के लिए सिर्फ लीला शब्द देना पर्याप्त नहीं है ? दूसरी तरफ जैसे सूर्य के रहते अन्धेरे का रहना सम्भव नहीं है चूंकि दोनों परस्पर विरोधी तत्त्व है । ठीक उसी तरह दयालुता और करुणालुता रहने पर संहार प्रलय सम्भव नहीं है । जिस दृष्टि से मां को देखा जाता है उसी दृष्टि से पत्नी - बहन और बेटी को कैसे देखा जाय ? यह कैसे सम्भव है ? उसी तरह जिस दयालुता आदि से ईश्वर सृष्टि निर्माण करता है वही ईश्वर उस दया करुणा आदि के रहते संहार प्रलय कैसे कर सकता है ? या यों कहीए कि ईश्वर में से दया- करुणा के गुण चले जाते हैं और क्रूरता, निर्दयता आदि दुर्गुण प्रा जाते हैं । अरे रे ! ईश्वर का स्वरूप विकृत करने की भी कोई सीमा होती है ? ाश ! जिसे मानना है पूजना है, अहर्निश जिसका नामस्मरण करना है उसका इतना विकृत स्वरूप ? आश्चर्य । इससे बड़ा आश्चर्य और क्या हो सकता है ! अरे भाई ! मैं तो यह कहता हूँ कि जब आगे चलकर सृष्टि का प्रलय करना ही था तो फिर पहले से सृष्टि निर्माण ही क्यों की ? निर्माण ही नहीं करते तो फिर प्रलय-संहार करने का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता ? यह तो समुद्र से पानी नदी में कर्म की गति न्यारी ८२Page Navigation
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