Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 02 03 04
Author(s): Arunvijay
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 84
________________ उलेचने के समान निरर्थक कार्य हुप्रा ? क्या फायदा ? इधर से समुद्र से पानी भर-भर कर नदी में डालना जो नदी बहती हुई आकर समुद्र में ही मिलती है। तो फिर ऐसा प्रयत्न क्या बुद्धिमान आदमी का कार्य हो सकता है ? उसी तरह सृष्टि की रचना करो और फिर उसका संहार करो। फिर दूसरे युग में पुनः सृष्टि की रचना करो फिर प्रलय करो ? फिर तीसरे युग में पुन: सृष्टि निर्माण करो......"फिर संहार करके समाप्त करो !"""""अरे""भगवान ! ईश्वर को कैसे कार्य में जोड़ दिया है ? कुम्हार घड़ा बनाता जाय फिर उसे तोड़कर मिट्टी बनाए, फिर उस मिट्टी से घड़ा बनाता जाय, फिर तोड़ कर उसे मिट्टी बनाए, फिर घड़े बनाता जाय, फिर मिट्टी........ फिर घड़ा...""क्या ऐसा कोई कुम्हार कभी करता है ? संभव भी नहीं । यदि कुम्हार जो नासमझ है वह नहीं करता है सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ ईश्वर क्या ऐसा कार्य करे यह संभव भी है ? इस तरह वह बार-बार सष्टि बनाता रहे और बार-बार संहार से समाप्त करता' रहे".... पुनः बनाना पुन: प्रलय ......"यंत्रवत् ईश्वर को उसी कार्य में जोड़ दिया ? यह ईश्वर की कैसी विडंबना की है ? अरे .. .. रे .....! इसके बजाय यदि सृष्टि बनानी भी है तो एक बार बना के कार्य समाप्ति के बाद ईश्वर निवृत्त हो जाय । बस फिर बनाने, नाश करने आदि की समस्या ही नहीं रहेगी ? लेकिन क्या करें ? ईश्वर को नित्य भी कह दिया, उसे ही एक कहा है। वह एक ही नित्य है । उसकी इच्छा भी नित्य है । वह सदा बनाता ही रहे । उसी का सदा ही संहार प्रलय भी करता ही रहे । ऐसा ईश्वर का स्वरूप नियत कर दिया है ? न मालुम ईश्वर का ऐसा स्वरूप किसने खड़ा किया है ? क्या ईश्वर ने ही अपना जैसा स्वरूप है वैसा बताया है कि फिर ईश्वर ऐसा है यह किसी और ने बताया है ? ईश्वर ने खुद ने तो अपना ऐसा स्वरूप है यह बताया ही नहीं है। चंकि ईश्वर के ऊपर भी वेद की सत्ता मानी है। ईश्वर तो उत्पन्न तत्त्व है । परन्तु वेद तो अपौरुषेय अनुत्पन्न तत्त्व है। वेद ईश्वर के पहले भी विद्यमान थे। तभी तो ईश्वर ने वेद में देखकर सृष्टि की रचना की है । वेद नहीं होते तो ईश्वर सृष्टि की रचना ही कैसे करते ? किंकर्तव्यमूढ़ बनकर बैठे रहते, क्योंकि पूर्व के कल्प में सृष्टि कैसी रची थी यह कैसे पता चलता ? इसलिए सृष्टि निर्माण करने के लिए ईश्वर को वेद में देखना अनिवार्य है। वेद में लिखे अनुसार ही ईश्वर सृष्टि की रचना कर सकता है। यहाँ ईश्वर को भी वेद के आधीन कर दिया । ईश्वर की स्वतंत्रता छीन ली और परवश, परतन्त्र बना दिया । तो फिर ईश्वर की स्वतन्त्रता कहाँ रही ? ईश्वर सर्वोपरि सर्वोच्च कहाँ रहा ? और दूसरी तरफ प्राश्चर्य देखिए कि ईश्वर को सर्वज्ञ-सर्वविद्, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कहा। तो यह गलत सिद्ध होगा। वेद को ही सर्वज्ञ-सर्वविद् कहते तो ही ठीक रहता । परन्तु वेद चेतन-सक्रिय तत्त्व कहां कर्म की गति न्यारी

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