Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 7
________________ १० जिन खोजा तिन पाइयाँ ( ४ ) जो सत्य का श्रवण रुचिपूर्वक करता है, उसमें उससे सत्य के संस्कार पड़ते हैं, इन सत्य के संस्कारों से धर्म प्राप्त होता है। भले तत्काल लाभ न हो, तो भी धार्मिक संस्कारों से भविष्य में धर्म प्राप्त होता है। जिसका जिसके साथ जिसतरह का संस्कार होता है, प्रकृति उसे सहजरूप से ही मिला देती है। बचपन के संस्कारों के बीज निश्चित ही समय पर वातावरण का जल पाकर अंकुरित हो जाते हैं। ( ५ ) वैसे तो सब स्वतंत्र है, सभी अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अपनेअपने उपास्य की उपासना करते हैं, पर हमारे उपास्य देव तो सर्वज्ञवीतरागी जिनेन्द्र भगवान ही हैं न? अतः हमारे लिए वे ही प्रातः स्मरणीय हैं । इसलिए हम प्रातः सर्वप्रथम अपने उपास्य देव का स्मरण करने के लिए जयजिनेन्द्र करते हैं। ( ६ ) यदि कोई यह कहे कि भारतीय अभिवादनों में साम्प्रदायिक और पुरातनपन्थ की गंध आती है तो क्या गुडमॉर्निंग में पाश्चात्य संस्कृति व आधुनिक सभ्यता की गंध नहीं है? और क्या पाश्चात्य संस्कृति में साम्प्रदायिक विचारों को स्थान नहीं है? पाश्चात्य देशों के व्यक्ति अपने धर्म और सम्प्रदाय के प्रति जितने कट्टर रहे हैं, शायद ही कोई अन्य होगा, अतः हमें साम्प्रदायिक आरोप के भय से अपने उपास्य देव को छोड़ अन्य कुछ बोलकर हर एक के सामने गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलना चाहिए। कोई हम से कुछ भी बोलकर अभिवादन करे, पर हम तो उसके उत्तर में जयजिनेन्द्र ही कहें। ( ७ ) जिन्होंने मोह - राग-द्वेष और इन्द्रियों के विषयों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ हो गये हैं, वे सब आत्माएँ जिनेन्द्र हैं। ऐसे जिनेन्द्र के उपासक वस्तुतः व्यक्ति के नहीं, बल्कि गुणों के उपासक हैं। (७) संस्कार से ११ (८) धर्म और दर्शनों की दृष्टि से भारत में विविधता होते हुए भी भारतीयराष्ट्रीयता की भावना से सब एक हैं। सभी दार्शनिक एक-दूसरे के धर्म और दर्शनों के बारे में जानना भी चाहते हैं। समय-समय पर होने वाले सर्वधर्म सम्मेलन इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। राजनीति में धर्म तो रहे, पर धर्म में राजनीति का क्या काम ? पानी में नाव तो रहती है, पर यदि नाव में पानी आ गया तो वह नाव को ले डूबता है। यही स्थिति धर्म की है। यदि धर्म में राजनीति आ गई तो वह धर्म को भी बदनाम कर देती है। ( ९ ) जैनधर्म तो वैसे भी किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं है, जो इसका पालन करता है, यह तो उसी का है। देखो न ! जैनदर्शन के प्रतिपादक चौबीसों ही तीर्थंकर जाति से क्षत्रिय थे, इसके विवेचक गौतम गणधर ब्राह्मण थे। उनके अनेक आचार्य भी क्षत्रिय और ब्राह्मण कुल के हुए हैं, पर आज इसके उपासक अधिकांश वणिक हैं। ( १० ) जैनधर्म की मान्यता के अनुसार प्रत्येक आत्मा द्रव्य स्वभाव से तो भगवान ही है, अपनी भूल को मिटाकर वह पर्याय में भी परमात्म दशा प्रगट कर सकता है। यह तो विशुद्ध आध्यात्मिक धर्म है, आत्मा से परमात्मा बनने की कला सिखाने वाला धर्म है। इसका सम्पूर्ण व्यवहार भी अध्यात्म का ही साधक है। ( ११ ) खटमलों के कारण खाट और बिस्तर थोड़े ही फेंक दिये जाते हैं और मच्छरों की वजह से मकान थोड़े ही छोड़ दिया जाता है। इसीतरह किसी के द्वारा सच्चे धर्म की बुराई सुनकर उसे छोड़ा नहीं जाता। ( १२ ) सप्त व्यसनों का त्यागी और अष्टमूलगुणों का धारी व्यक्ति ही आत्मा

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