Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ कहानी : ऐसे क्या पाप किये से (४) पुण्य के उदय में हर्ष मानना, पाप के उदय में खेद खिन्न होना, शरीर की संभाल में लगे रहना, देह की वृद्धि में प्रसन्नता और देह की क्षीणता में अप्रसन्नता । भला इन्हें कौन पाप गिनता है? परन्तु पण्डित बनारसीदास ने इन्हें ही जुआ खेलने और मांस खाने जैसे व्यसनों में गिनाया है। (८) पुत्र-पुत्रियों से प्रीति करना, उनमें ममत्व रखना, उनके वियोग में दुःखी होना, देह में एकत्व रखना, देह के ही संभालने में रत रहना, शरीर में रोगादि होने पर दुःखी होना आदि भी पाप है - ऐसा बहुत ही कम लोग जानते हैं, जबकि ये आर्तध्यान रूप पाप परिणाम है। जो मिथ्या मान्यता के कारण अशुभ उदय आने पर प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी हार मानता है तथा शुभोदय में अनुकूल स्थिति में अपनी जीत मानता है; वह एक तरह से जुआरी ही है; जैसे हर्ष-विषाद रूप परिणाम जुआ की जीत-हार में होते हैं, वैसे ही हर्ष-विषाद के परिणाम जिसने पुण्य-पाप के उदय में किए तो दोनों में कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि फल तो परिणामों का ही मिलता है न? इस कारण जुआ में हर्ष-विषाद और पुण्य-पाप के उदय से हुए हर्ष-विषाद दोनों एक जैसे ही हैं। इसी तरह मांसल देह में एकत्व व ममत्व बुद्धि से मग्न हो ना भी माँस खाने जैसा व्यसन ही है? जगत में कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं है, भला-बुरा नहीं है, फिर भी उसे भला-बुरा मानना रूप मिथ्या अभिप्राय से दिन-रात आर्तध्यान, रौद्रध्यान परिणामों में डूबे हुए व्यक्ति को यह समझ में नहीं आता कि इष्ट वियोगज एवं अनिष्ट संयोगज तथा पीड़ा चिन्तन रूप आर्तध्यान और पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आनन्द मानना रौद्रध्यान रूप पाप है। यह तो अज्ञानी जानता नहीं है और जिसमें पाप नहीं है, उसे पाप मानता है। किसी से भले ही जीवनभर एक भी प्राणी का घात न हुआ हो, किसी ने एक भी शब्द असत्य न बोला हो, इसीतरह किसी को चोरी, कुशील व बाह्य परिग्रह में किंचित् भी प्रवृत्ति न हुई है परन्तु जो देवी-देवताओं की उपासना रूप गृहीत मिथ्यात्व के साथ उक्त मिथ्या मान्यता से इष्टवियोग, अनिष्ट-संयोग, पीड़ा-चिन्तन रूप आर्तध्यान करता रहे, विषयानन्दी रौद्रध्यान करता रहे तो ये सब पाप ही हैं। इसी तरह अपने परिवार के प्रति प्रीत करता हुआ उसमें आनन्द मनाये तो ये सभी हिंसानन्दी और परिग्रहानंदी रौद्रध्यान हैं, ये परिणाम पाप ही है और दुःख के कारण हैं। (१०) आश्चर्य इसका नहीं होना चाहिये कि कौन से पाप किये, बल्कि आश्चर्य तो यह है कि मिथ्या मान्यतावश दिन-रात पाप भाव में रहते हुए ऐसा महान पुण्य कब बाँध लिया, जिससे यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिनधर्म की शरण और धर्म के अनुकूल वातावरण प्राप्त कर लिया? यह शराब पीकर मूर्च्छित हुआ या मोह में मूर्च्छित दोनों में कोई अन्तर नहीं है, मूर्छा तो दोनों में हुई न । अतः मोही जीव का मोह भी एक प्रकार से शराब पीने जैसा व्यसन ही है। ये कुबुद्धि या व्यभिचारिणी बुद्धि वैश्या व्यसन जैसा है। निर्दय होकर किसी भी प्राणी की हिंसा में प्रवृत्ति शिकार व्यसन है तथा दूसरों की बुद्धि की परख करने को परस्त्री सेवन का व्यसन कहा है। दूसरों की वस्तु रागवश ग्रहण करना चोरी व्यसन है। इन सात व्यसनों में सुख की मान्यता के त्यागपूर्वक ही आत्मा को जाना/पहचाना जा सकता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74