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जिन खोजा तिन पाइयाँ
(३०) जो पत्नियाँ केवल विषय-कषाय एवं राग-रंग में ही सहभागी बनती हैं, धर्म साधन में साथ नहीं रहती, उन्हें तो धर्मपत्नी कहलाने का अधिकार ही नहीं है। अतः धर्मपत्नियों को अपना धर्म निभाकर अपना नाम सार्थक करना चाहिए।
विदाई की बेला से
वचनोच्चारण की क्रिया का परित्याग कर वीतरागभाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे समाधि कहते हैं।
समस्त विकल्पों के नाश होने को परमसमाधि कहते हैं।
जहाँ भी आगम में समाधि के स्वरूप की चर्चा आई है, उसे जीवन की साधना, आत्मा की आराधना और ध्यान आदि निर्विकल्प भावों से ही जोड़ा है, न कि मरण से। अतः समाधि प्राप्त करने के लिए मरण की प्रतीक्षा करने के बजाय जीने की कला सीखना जरूरी है, जो सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की यथार्थ समझ से ही संभव है।
तत्त्वज्ञान के अभ्यास के बल से जिनके जीवन में ऐसी समाधि होगी, उनका मरण भी नियम से समाधिपूर्वक ही होगा।
जिन्होंने अपना जीवन समाधिपूर्वक जिया हो, मरण भी उन्हीं जीवों का समाधिपूर्वक होता है। वस्तुतः आधि-व्याधि व उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम ही तो समाधि है।
बात कितनी भी बढ़िया क्यों न हो, पर एक सीमा तक ही उसका लाभ मिलता है। सीमा का उल्लंघन होते ही अमृत तुल्य षट्रस व्यंजन भी विषरूप परिणत होने लगते हैं।
लोक के सभी द्रव्यों को, पदार्थों को वस्तुत्व गुण के कारण वस्तु भी कहते हैं। इन सभी वस्तुओं का स्वरूप पूर्ण स्वतंत्र व स्वाधीन है। आत्मा भी एक अखण्ड, अविनाशी, अनादि-अनंत, ज्ञानानंद स्वभावी, पूर्ण स्वतंत्र वस्तु है। ज्ञाता-दृष्टा रहना उसका स्वभाव है। क्रोधादि करना आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। स्वभाव से विपरीत भाव को विभाव कहते हैं। काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ आदि के भाव आत्मा के विपरीत भाव हैं। अतः ये सब विभाव हैं।
जब तक यह जीव वस्तुस्वातंत्र्य के इस सिद्धान्त को नहीं समझेगा और क्रोधादि विभाव भावों को ही स्वभाव मानता रहेगा, अपने को पर का कर्ता-धर्ता मानता रहेगा, तब तक समता एवं समाधि का प्राप्त होना संभव नहीं है।
तत्त्वों के सच्चे श्रद्धान-ज्ञान व आचरण से ही आत्मा निष्कषाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है।
मरते समय तो समाधिरूप वृक्ष के फल खाए जाते हैं; बीज तो अभी ही बोना होगा: तभी तो उस समय फल मिलेगा। कहा भी है
दर्शन ज्ञान-चारित्र को, प्रीति सहित अपनाय। च्युत न होय स्वभाव से, वह समाधि को पाय।।
(३२) सम शब्द का अर्थ है एक रूप करना, मन को एकाग्र करना । आत्मा में मन को एकाग्र करना समाधि शब्द का अर्थ है।
जिनका मरण सुधर जाता है, वे ही परभव में अगले जन्म में सुखद संयोगों में पहुँचते हैं, उनको ही स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और जिनका मरण बिगड़ जाता है, वे नरक-निगोद आदि गतियों में जाकर अनंतकाल तक असीम दुःख भोगते हैं।
जिसने अपना जीवन रो-रोकर जिया हो, जिनको जीवन भर संक्लेश ही संक्लेश और अशान्ति रही हो, जिनका जीवन केवल आकुलता में ही बीता हो, जिसने जीवन में सुख-शान्ति कभी देखी ही न हो, निराकुलता का अनुभव किया ही न हो; इसकारण जिनके जीवन भर संक्लेश परिणाम रहे हों, आर्तध्यान ही हुआ हो; उनका 'मरण' कभी नहीं सुधर सकता; क्योंकि जैसी मति वैसी गति ।