Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 51
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ ___दो द्रव्य या दो वस्तुयें सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं, प्रदेशभेद वाली ही हैं। दोनों एक होकर एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करतीं और उनकी एक क्रिया नहीं होती। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्यों का लोप हो जाये। ___ एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते और दो द्रव्य मिल एकमेक नहीं करते तथा एक द्रव्य की दो क्रियायें नहीं होती; क्योंकि एक द्रव्य अनेकरूप नहीं होता। जो वस्तु जिस द्रव्य के रूप में और गुण के रूप में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य के रूप में तथा अन्य गुण के रूप में संक्रमित नहीं होती। और स्वयं अन्य रूप से संक्रमण को प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तु का परिणमन कैसे करा सकती है? (४३) यह आत्मा अमूल्य चैतन्य चिन्तामणि है। बस, इसे जानते-देखते रहो और आनन्द लेते रहो। मात्र यही करना है, इसके सिवाय कुछ नहीं करना है। यही आत्मा का स्वरूप है, काम है और यही आत्मा का धर्म है। (४४) अरहन्त व सिद्ध भगवान वर्तमान में क्या करते हैं? कुछ भी नहीं; क्योंकि वे कृतकृत्य हैं। उन्हीं की तरह हमें-तुम्हें भी कुछ नहीं करना; क्योंकि हमारा आत्मा भी स्वभाव से कृतकृत्य ही है। सुखी जीवन से विकल्प आयेंगे बल्कि ज्ञानी भी अज्ञानी की भाँति ही लड़-भिड़ कर और संघर्ष करके अपने उन विकल्पों को पूरा करने की कोशिश भी करेंगे। यही कारण है कि वस्तुस्वातन्त्र्य पर पूर्ण श्रद्धा रखने वाले ज्ञानियों की गृहस्थी बिगड़ती नहीं; बल्कि भूमिका का यथार्थ विवेक होने से उनकी मति तो व्यवस्थित हो ही जाती है तथा गृहस्थी भी और अधिक व्यवस्थित हो जाती है। (४६) धर्म तो आत्मा का स्वरूप है, निजरूप है, जो सहज ही होता है। धर्म करने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता; बल्कि जो कुछ अज्ञानदशा में कर रहे हैं; उल्टा उसे बन्द करना पड़ता है। वस्तुतः धर्म कुछ करने/कराने की वस्तु ही नहीं है। व्यक्ति शान्त तो जीवन भर रह सकता है; पर क्रोध लगातार आधा घण्टा भी नहीं कर सकता; क्योंकि शान्त रहना स्वभाव है और क्रोध करना विभाव/जीव विभाव में सदा नहीं रह सकता। (४७) वस्तुतः स्वप्न और कुछ नहीं, दिनभर जिस बारे में अपना जैसा अच्छा-बुरा सोच चलता रहता है, वही धीरे-धीरे अवचेतन मन में पहुँच जाता है और जब सोते समय मन-मस्तिष्क तनाव मुक्त शिथिल हो जाता है तो वही अवचेतन मन की बातें स्वप्न में साकार होने लगती हैं और धीरेधीरे वह सब विषय संस्कार बनकर जनम-जनम के साथी बन जाते हैं। अतः हम दिन में सजग अवस्था में जितने अच्छे विचार रखेंगे उतने ही अच्छे स्वप्न हमें आयेंगे, जो कालान्तर में अच्छे संस्कारों में परिणत होकर हमारे कल्याण के कारण बनेंगे। (४८) जब व्यक्ति अनादि-अनन्त स्व-संचालित विश्व व्यवस्था और वस्तु स्वरूप समझकर सब ओर से निश्चिन्त, निर्भय-निर्भार और शोकमुक्त हो जाता है तो स्वभावतः वह प्रसन्न रहने लगता है। यह प्रसन्नता व्यक्ति के जिनवाणी के अनुसार वस्तुस्वरूप की पूर्ण और अटल श्रद्धा होने पर भी जो जिस भूमिका में है, उसे उस जाति के विकल्प आये बिना नहीं रहते। यदि हम गृहस्थ हैं, किसी के माता-पिता हैं तो बाल-बच्चों के पालन-पोषण, पढ़ाने-लिखाने, योग्य मार्गदर्शन देने का भाव आये बिना नहीं रहता। भले हमें वस्तु स्वातन्त्र्य और उनके पुण्य-पाप पर पूर्ण भरोसा है। फिर भी पर्याय का स्वरूप ही ऐसा है कि - उस जाति के न केवल

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