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नींव का पत्थर से
(३०) यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिसके जिन गुणों की प्रशंसा की जाती है, उसके उन गुणों का विकास तीव्र गति से होने लगता है।
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जिन खोजा तिन पाइयाँ ही है। जब यह अकाट्य नियम है तो फिर यह क्यों कहा गया कि - 'परमाणु-परमाणु का परिणमन स्वतंत्र है, स्व-संचालित हैं, कोई भी किसी कार्य का कर्ता-धर्ता नहीं है। क्या यह बात परस्पर विरोधी नहीं है?
नहीं, यह परस्पर विरोधी नहीं है, क्योंकि कार्य-कारण सम्बन्धों को मिलने-मिलाने की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। जब कार्य होता है तब कार्य के अनुकूल सभी कारण स्वतः ही मिलते हैं। चाहे वे काम अकृत्रिम हों, प्राकृतिक हों या कृत्रिम हों।
द्रव्यशक्ति के अनुसार कार्य का नियामक कारण त्रिकाली उपादान है, इस अपेक्षा से सत्कार्यवाद का सिद्धान्त सही है; किन्तु केवल द्रव्यशक्ति के अनुसार कार्योत्पत्ति मानने पर कार्य के नियत्व का प्रसंग आता है, इसकारण वह कार्य का नियामक कारण तो है, पर समर्थ कारण नहीं। समर्थ कारण तत्समय की पर्याय की योग्यता है, और वही पर्याय का कार्य है।
इसप्रकार वास्तविक या समर्थ कारण-कार्य सम्बन्ध एक ही द्रव्य की एक ही वर्तमान पर्याय में घटित होते हैं, उसीसमय संयोग रूप जो उस कार्य के अनुकूल परद्रव्य होते हैं, उन्हें उपचार से निमित्त कारण कहा जाता है।
उपादान कारण पूर्ण स्वतंत्र स्वाधीन व स्वशक्ति सामर्थ्य से युक्त है; परन्तु एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कार्य करने में पूर्णतः असमर्थ है।
एक कार्य के दो कर्ता कदापि नहीं हो सकते तथा एक द्रव्य युगपद एककाल में दो कार्य नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य अपना कार्य स्वतंत्र रूप से स्वयं ही करता है। स्वयं अपनी शक्ति से परिणमित होती हुई वस्तु में अन्य के सहयोग की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं।
यदि उपादान कारण में स्वयं योग्यता न हो तो निमित्त उसे परिणमित नहीं करा सकता । विश्व की समस्त वस्तुएँ (द्रव्य) अपनी-अपनी ध्रुव व क्षणिक योग्यतारूप उपादान सामर्थ्य से भरपूर हैं।
बुरी बात को इस कान से सुनो और उस कान से निकाल दो। उसे गले से निगलो ही मत । निगलने से ही तो पेट में दर्द की संभावना बनती है।
(३२) किसी को भी मानसिक दुःख न हो, सभी सद्भाव से रहें। कोई किसी को लड़ायें-भिड़ायें नहीं। इसके लिए हमें भगवान की सर्वज्ञता के आधार पर क्रमबद्धपर्याय का स्वरूप समझना होगा। सर्वशक्तिवान भगवान सर्वज्ञ हमारे-तुम्हारे सबके भविष्य को भी जानते ही हैं। वह सर्वज्ञ विश्व में जिस द्रव्य में जो होने वाला है, उसे ही जानेंगे, अनहोनी तो जानेंगे ही नहीं। ___ इन सब बातों से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब जो होना है; वही होता है तो हम भला-बुरा करने के भाव करके व्यर्थ में पुण्य-पाप के चक्कर में क्यों पड़ें। जो सर्वज्ञ के जाने गये अनुसार होना है, उसमें हमारा क्या स्थान है? बस हमें इतना जानना भर है। यदि न जानो तो यह भी मत जानो, होने वाले काम को आपके जानने की भी अपेक्षा नहीं है, वह तो अपने स्वकाल में अपनी तत्समय की योग्यता से होगा ही।
(३३) 'सर्वज्ञ' शब्द में जो सर्व शब्द है उसका तात्पर्य त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों से है। जो त्रिकाल
और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को युगपत प्रत्यक्ष जानता है वह सर्वज्ञ है।
सर्वज्ञ जानता तो सबको है; पर वह पर को तन्मय होकर नहीं जानता। सर्वज्ञ पर को जानते हुए भी निजानंद में ही मग्न रहते हैं।