Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 64
________________ नींव का पत्थर से १२५ १२४ जिन खोजा तिन पाइयाँ जब तक वक्ता के प्रति श्रोता की सच्ची श्रद्धा भक्ति नहीं होगी और सम्पूर्ण समर्पण नहीं होगा एवं उनके प्रवचनों को ध्यान से नहीं सुनेगा तब तक उसे तत्त्वज्ञान का लाभ नहीं होगा। (२६) वास्तविक विश्व का स्वरूप शास्त्रीय परिभाषा के अन्तर्गत छह द्रव्यों के समूह को कहा है। उन छह द्रव्यों में जीव अनन्त हैं, पुद्गल अनन्तानन्त है; धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाश द्रव्य एक-एक हैं तथा काल द्रव्य असंख्य हैं। इन अनादि-अनन्त स्वतंत्र स्वाधीन स्वावलम्बी स्वसंचालित द्रव्यों में जो अनन्त जीव द्रव्य हैं, उनमें हम भी एक द्रव्य हैं। छह द्रव्य के समूह रूप त्रिलोकव्यापी अनादि-अनन्त स्व-संचालित विश्व के स्वतंत्र अस्तित्व का परिचायक 'वस्तुस्वातंत्र्य' का सिद्धान्त है, जो कि स्वाभाविक कार्य-कारण व्यवस्था और सहज निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का मूल आधार है। विश्व का कण-कण सम्पूर्णतः परनिरपेक्ष, स्वाधीन, स्वतंत्र, स्वसंचालित एवं स्वावलम्बी है। उसे अपने अस्तित्व के लिए एवं परिणमन के लिए रंचमात्र भी पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। (२७) प्रायः होता यह है कि दुनिया की दृष्टि में तीर्थकर तुल्य महत्वपूर्ण होने पर भी पत्नी पुत्र, पुत्रवधू और घर-परिवार वालों को धर्म का परिचय और प्रीति न होने से घर के विद्वान वक्ता की महिमा नहीं आती। (२८) जीवघात होने पर भी यदि व्यक्ति का इरादा उसे घात करने का नहीं हो तो उसे हिंसक नहीं माना जाता । जीवघात तो अनेक कारणों से हो जाता है होता ही रहता है; जैसे प्राकृतिक प्रलय, तूफान, बाढ़, महामारी, आगजनी, भूकम्प आदि अनेक ऐसी घटनायें होती ही रहती हैं, जिनमें असंख्य मानव पशु, पक्षी, कीड़े-मकोड़ों का घात हो जाता है, फिर भी हिंसा का पाप किसी को नहीं लगता। उसे हिंसा कहते भी नहीं है। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति किसी के घात करने की सोचता भी है तथा अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कोई ऐसी योजना बनाता है, जिसमें जीवों के मरने की संभावनायें होती हैं तो भले ही उसके सोच के अनुसार जीवों का घात न भी हो तो भी वह व्यक्ति हिंसक है, अपराधी है; क्योंकि उसने सोचने एवं योजना बनाते समय जीवों की रक्षा की परवाह नहीं की। __ वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध अन्य जीवों के मरने न मरने से नहीं है, बल्कि स्वयं के अभिप्राय और प्रमाद से है। यदि स्वयं का परिणाम क्रूर है और अभिप्राय जीवों के घात का है तो वे नियम से हिंसक हैं तथा अभिप्राय में क्रूरता और जीवघात की भावना नहीं है तो अन्य जीवों के मरने पर भी वह अहिंसक है। जैसे कि - ऑपरेशन थियेटर में ऑपरेशन करते-करते मरीज मर जाता है, किन्तु उस मौत के कारण डॉक्टर को हिंसक नहीं माना जाता । अतः जीव के मरने-जीने से हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध नहीं है। आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी ने कहा भी है कि - 'हिंसा में प्रमाद परिणति मूल है।' वास्तव में तो अन्य जीवों के जीवन, मरण, सुख-दुःख से भी हिंसाअहिंसा का दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। उनके जीवन-मरण एवं सुख-दुःख में भी अन्तरंग निमित्त कारण तो उनके ही आयुकर्म तथा साता-असाता वेदनीय कर्म हैं और उपादान कारण वे स्वयं हैं। __ इस जगत में जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख यह सब सदैव नियम से अपने द्वारा उपार्जित कर्मोदय से होते हैं। दूसरा पुरुष दूसरे के जीवनमरण, सुख-दुःख का कर्ता है - यह मानना तो अज्ञान है। मैं परजीव की रक्षा कर सकता हूँ या मार सकता हूँ यह मान्यता मिथ्यात्व है, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना योग्य है। (२९) जगत में छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई भी काम बिना कारण के तो होता ही नहीं, जो भी कार्य होता है, उसका कोई न कोई कारण तो होता (

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