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जिन खोजा तिन पाइयाँ
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नींव का पत्थर से
आना पड़े तो आते हैं। संसार के हित में किया समर्पण तो अच्छा है ही; किन्तु अपने आत्म कल्याण के हित में भी कुछ सोचने की जरूरत है।
(११) यदि सम्यग्दर्शन मोक्ष महल की प्रथम सीढ़ी है तो वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त उस मोक्षमहल की नींव का मजबूत पत्थर है। जिसतरह गहरी जड़ों के बिना वटवृक्ष सहस्त्रों वर्षों तक खड़ा नहीं रह सकता, गहरी नींव के पत्थरों के ठोस आधार बिना बहु-मंजिला महल खड़ा नहीं हो सकता; उसीप्रकार वस्तुस्वातंत्र्य एवं उसके पोषक चार अभाव षट्कारक, परपदार्थों के अकर्तृत्व का सिद्धान्त, कारण-कार्य आदि की ठोस नींव के बिना मोक्षमहल खड़ा नहीं हो सकेगा।
___ धर्म साधना से पाप के बीजरूप परिग्रह आदि वैभव के सुखद संयोगों की ममता टूटकर समताभाव जागृत हो जाता है। आत्मध्यान और तत्त्व चिन्तन में चित्त एकाग्र होता है। रागद्वेष रहित होकर वीतरागता की ओर अग्रसर होते हैं। अतः धर्म का यथार्थ स्वरूप समझ कर धर्म कार्यों में प्रवृत्त होना ही मानव जीवन की सार्थकता है।
साधारण नारी अपनी मान-मर्यादाओं में; सामाजिक रूढ़ियों और धार्मिक अंधविश्वासों में ऐसी जकड़ी और सिमटी रहती हैं कि वे सक्षम होकर भी अपनी क्षमता (योग्यता) को व्यक्त नहीं कर पाती। उसे अपनी क्षमता व्यक्त करने के अवसर ही नहीं मिल पाते, इस कारण अधिकतर नारियों की क्षमता तो कुंठित ही हो जाती है।
विरली नारियाँ ही ऐसा साहस कर पाती हैं कि वे सामाजिक पुरातनपन्थी रूढ़ियों और धार्मिक अंध विश्वासों से ऊपर उठकर आगे आयें।
भौतिकदृष्टि से भले ही परदेश लोगों को सुखद लगता हो, पर आध्यात्मिक उन्नति के लिए वहाँ की स्थिति बिल्कुल भी अनुकूल नहीं है, वीतरागी साधु-सन्तों का आवागमन तो भौतिकवादी भोगप्रधान दूरस्थ देशों में संभव ही नहीं है, युवापीढ़ी के विद्वान भी वहाँ की चकाचौंध में चौंधियाकर वहीं के होकर रह जाते हैं और अपनी अर्जित विद्वता से हाथ धो बैठते हैं।
(१४) आत्मकल्याण करने एवं परलोक सुधारने के लिए भले ही कोई तत्काल निर्णय न ले पाये; पर संतान का मोह कुछ ऐसा ही होता है कि उनके हित के लिए जो भी करना पड़े, लोग करते हैं। परदेश छोड़कर वापिस स्वदेश
कैसा होगा वह धर्म का स्वरूप, जिससे जन्म, जरा, भूख, प्यास, रोग, शोक, मद, मोह आदि दोषों का अभाव होकर वीतराग भाव जागृत होता है? आत्मा-परमात्मा बन जाता है। आत्मा अतीन्द्रिय, निराकुल सुख सरोवर में निमग्न होकर सदैव परम शान्ति और शीतलता का अनुभव करता है। जिस धर्म से तो समता भाव के साथ त्रैकालिक स्थाई आनन्द का झरना झरता रहता है वही वास्तविक धर्म है, धर्म स्व-परीक्षित साधना है।
(१७) यदि कोई शुभभाव रूप धर्माचरण को शुद्ध (वीतरागता) रूप धर्म समझ ले तो यह तो उसकी भूल ही है। यदि स्थिति चारित्र और सदाचार की है। सदाचार को चारित्र नहीं माना जा सकता। पूर्वाग्रह के झाड़ की जड़ें गहरी नहीं होती।
(१८) श्रद्धा में वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त का अटूट विश्वास होने पर भी जब तक गृहस्थ जीवन में अपनी संतान के प्रति राग है, तब तक उसके भविष्य को उज्ज्वल बनाने के विकल्प नहीं छूटते ।
(१९) बहुएँ या सासें कोई कठपुतलियाँ तो नहीं; जो दूसरों की उंगलियों के इशारे से नाचर्ती हैं। सबकी अपनी-अपनी इच्छायें होती हैं, अपने-अपने