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नींव का पत्थर से
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जिन खोजा तिन पाइयाँ विचार होते हैं, उन्हें सुनें-समझें; फिर एकमत हों तो ठीक; अन्यथा कोई बात नहीं। जो जिसे जंचे करने दो; सब अपनी-अपनी मर्जी के मालिक हैं, मन के राजा हैं, उन्हें मर्जी का मालिक और मन का राजा ही रहने दें।
(२०) वस्तुस्वातंत्र्य के महामंत्र का स्मरण करके कोई किसी के काम में हस्तक्षेप न करें। न स्वयं अपने मन को मारे और न दूसरों के मन को मरोड़े। यही सुख-शान्ति से रहने का महामंत्र है। अतः वस्तुस्वातंत्र्य का महामंत्र जपो और आकुलता से बचो। यही संतों का उपदेश है, आदेश है।
(२१) स्वतंत्रता के तीन रूप होते हैं। १. अस्तित्वात्मक स्वतंत्रता, २. क्रियात्मक स्वतंत्रता, ३. ज्ञानात्मक स्वतंत्रता। इनमें प्रथम व द्वितीय स्वतंत्रता तो सभी वस्तुओं में अनादि से है ही; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य-गुणपर्यायरूप वस्तुओं का अस्तित्व और उनमें होने वाला क्रियारूप स्वभावपरिणमन तो अनादि से स्वाधीनतापूर्वक हो ही रहा है; किन्तु ज्ञानात्मक स्वतंत्रता अज्ञानी जीवों को नहीं है अर्थात् अज्ञानी को अपने स्वतंत्र अस्तित्व और क्रिया की स्वाधीनता का ज्ञान नहीं है।
(२२) अचेतन हीरों से भी अधिक अमूल्य निज आत्मारूपी चैतन्य हीरा पूर्णस्वतंत्र, स्वावलम्बी, स्वसंचालित एवं स्वयं सुख स्वभावी होते हुए भी हमने स्वयं को नहीं जाना, अपने को नहीं खोजा, देहादि में ही अपने अस्तित्व को मानता-जानता रहा है। जहाँ सुख नहीं वहाँ सुख ढूँढा तो सुख मिलेगा कैसे?
मुण्डे मर्ति भिन्नः' इस सूक्ति के अनुसार सारी दुनिया में जितने व्यक्ति हैं, उनमें सबके विचार भिन्न-भिन्न होते हैं, एक दूसरे के विचार परस्पर में एकदूसरे से कभी नहीं मिलते। उनमें सम्पूर्ण रूप से समानता संभव ही नहीं है; क्योंकि प्रकृति से ही सबके सोचने का स्तर एवं उनके ज्ञान का स्तर समान नहीं होता।
जगत में जीव नाना प्रकार के हैं, उनके कर्मों का उदय भी भिन्न-भिन्न प्रकार का है, उनके सबके ज्ञान का विकास भी एक जैसा नहीं है। अतः विचार भी एक जैसे नहीं हो सकते हैं। अतः निष्पक्ष होकर सत्य का निर्णय स्वयं ही करना होगा।
(२४) धर्म तो वस्तु का स्वरूप है और वस्तु का स्वरूप बनाया नहीं जाता। वह तो अनादि-अनन्त-त्रिकाल आग की उष्णता और पानी की शीतलता की भाँति एकरूप ही होता है।
त्रिकाली स्वभाव सदा एकरूप ही रहता है, उसे पाने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, बल्कि करने के निरर्थक विकल्प बंद करना पड़ते हैं अर्थात् अनादिकाल से वस्तु स्वरूप के अज्ञान के कारण जो हमारी परद्रव्य में कर्तृत्वबुद्धि है, उसे छोड़ना पड़ता है।
जिसतरह आग का स्वभाव उष्ण है, उसीतरह आत्मा का स्वभाव जानना है, क्षमा, निरभिमान, निष्कपट तथा निर्लोभ है। ये ही आत्मा के धर्म हैं।
(२५) जगत में भी ऐसा कोई मजहब, सम्प्रदाय और जातिगत धर्म नहीं है जो क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि तथा अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह को धर्म नहीं मानता हो तथा क्रोध-मान-माया-लोभ और मोहराग-द्वेष तथा हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह को अधर्म न मानता हो। वस्तुतः ये ही धर्म और अधर्म हैं। इन्हें किसी न किसी रूप में सभी स्वीकार करते हैं।
वर्तमान विश्व के लगभग छह अरब आदमियों में शायद ही कोई ऐसा हो जो किसी न किसी रूप में धर्म को न मानता हो । सभी व्यक्ति अपनीअपनी समझ एवं श्रद्धा के अनुसार धर्म को तो मानते ही है; परन्तु मुण्डे
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