Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 53
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ बाल-बच्चों के प्रति बहु-बेटियों के प्रति, नौकरों के प्रति, पड़ौसियों के प्रति, पति-पत्नी और सास-ससुर आदि के प्रति भी जब कोई प्रतिकूलता का अनुभव हो तो आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा नियमसार गाथा १५६ में दिया उस मंगलमय सन्देश को जरूर याद रखना चाहिए; जो उन्होंने उपर्युक्त बोल में हमें विपरीत परिस्थितियों में न उलझने के लिए दिया है, यही हमारे सुखी जीवन का रहस्य है। (५७) आत्मार्थीजन अज्ञानीजनों के बारे में ऐसा विचार कर सन्तोष करते हैं कि इनकी वर्तमान ज्ञान पर्याय में समझ की ऐसी ही योग्यता है, सहनशीलता की इतनी ही शक्ति है, इनके शरीर की इतनी ही क्षमता है, इनकी कषाय परिणति की ऐसी ही विचित्र योग्यता है जिसके कारण ये इस खोटी प्रवृत्ति करने के लिये विवश हैं; इनके औदयिक व क्षयोपशमिक भाव ही इस जाति के हैं कि इस समय ये बेचारे न कुछ सीख सकते हैं, न कुछ समझ ही सकते हैं। और न इनके वर्तमान विभाव स्वभाव में किसी प्रकार के परिवर्तन की सम्भावना ही है; फिर हम इन पर दया करने के बजाय क्रोध क्यों करें? (५८) जैनदर्शन अकर्त्तावादी दर्शन है, इसके अनुसार विश्व की स्व-संचालित व्यवस्था छहों द्रव्यों के स्वतंत्र परिणमन एवं अपने-अपने पाँच समवायपूर्वक ही होती है। जिसद्रव्य की जो पर्याय जिस समय में जिसके द्वारा जैसी होनी है उसी द्रव्य की वही पर्याय उसी समय में उसी के द्वारा वैसी ही होती है। उसमें कोई फेरफार सम्भव नहीं है। उसमें एक समय भी आगे-पीछे नहीं हो सकता। जैनदर्शन को चाहे अकर्त्तावादी कहो या स्व-कर्त्तावादी कहो या सहजकर्त्तावादी कहो - सबका एक यही अर्थ है कि - यह दर्शन परद्रव्यों का कर्त्ता तो है ही नहीं, उनमें फेरफार का कर्ता भी नहीं है। सुखी जीवन से १०३ अकर्त्तावाद का व्यापक अर्थ तो यह है कि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता-हर्ता नहीं है। यहाँ तक कि - अपनी क्रमनियमित पर्यायों में भी वह किसी प्रकार का फेरफार नहीं कर सकता, उन्हें क्षेत्र से क्षेत्रान्तर एवं अपने-अपने स्व-काल से आगे-पीछे भी नहीं कर सकता। (५९) कार्य की उत्पादक सामग्री को कारण या समवाय कहते हैं। कार्य के पूर्व जिसका सद्भाव नियत हो और जो किसी विशिष्ट कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्य को उत्पन्न न करे; उसे कारण या समवाय कहते हैं। वे पाँच हैं - १. स्वभाव २. पुरुषार्थ ३. नियति या होनहार ४. स्व-काल एवं ५. निमित्त । जीव के सुख व दुःख रूप कार्य के पाँचों समवाय निम्न प्रकार है स्वभाव - सुख या दुःखरूप कार्य जीवद्रव्य में ही होता है, पुद्गल में नहीं; क्योंकि पुद्गल में तो सुखी-दुःखी होने का कोई गुण ही नहीं है, जो सुख-दुःखरूप परिणमें। इस प्रकार सुख-दुःखरूप कार्य का प्रथम समवाय जीव का सुख स्वभाव है। पुरुषार्थ - वह सुख या दुःखरूप कार्य कार्य के अनुकूल प्रयत्न पूर्वक ही होता है। अपने स्वभाव के अनुकूल क्षमा अदि भावरूप प्रयत्न करेगा तो सुख होगा और स्वभाव के प्रतिकूल क्रोधादि रूप प्रयत्न (उद्यम) करेगा तो दुःख होगा; क्योंकि स्वभाव के प्रतिकूल कारण ही दुःख कार्य के अनुकूल होते हैं। बस यही पुरुषार्थ सुख या दुःखरूप कार्य का दूसरा समवाय है। नियति - जीवों को जो सुख या दुःख होना उनकी नियति में है, वही होता है। ऐसा कभी नहीं होता कि - उन्हें तो सुखी होना था, किन्तु अचानक दुःख के निमित्त कारण मिल गये इससे सुखी होने के बजाय वे दुःखी हो गये। वस्तुतः निमित्तरूप परद्रव्य सुख-दुःख के कारण नहीं होते। स्वकाल - वह सुख या दुःख जीव को जब होना होता है, तभी होता है। उन सुख-दुःख के क्षणों को कोई आगे-पीछे नहीं कर सकता है, न समय से पहले ला सकता है और न समय से आगे बढ़ा सकता है।

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