Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 52
________________ १०० सुखी जीवन से (५२) जिसप्रकार मणियों की माला मात्र देखने, पहिनने और आनन्द लेने की वस्तु है; उसीतरह यह भगवान आत्मा अमूल्य चैतन्य-चिन्तामणि, केवल स्वयं को जानने-देखने, स्वयं में जमने-रमने और अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति करने योग्य परम पदार्थ है। बस, इसे ही जानते रहे और आनन्द लेते रहे। जिन खोजा तिन पाइयाँ सुखी जीवन के लिए बहुत बड़ा वरदान बनकर आती है। फिर वह न केवल मानसिक व्याधियों से मुक्त हो जाता है, दैहिक दुःखों से भी उसे बहुत कुछ छुटकारा मिल जाता है। (४९) अज्ञानजन्य कर्ताबुद्धि जिनके अन्तर में गहरे से बैठी हो, उन्हें अपने कर्तृत्व के बदले में और कुछ न मिले तो न सही; पर ढेर सारा धन्यवाद और प्रशंसा तो मिलना ही चाहिए। - ऐसे विचार रखने वाले लोग पैसे से अधिक प्रशंसा के भूखे होते हैं। इस मनोविज्ञान को न समझने वाले कुछ लोग प्रशंसा करने में कंजूसी करते हैं? पैसे से तो पेट की भूख मिटती है; पर साथ ही मानसिक खुराक के लिए प्रशन्सा भी अनिवार्य है। इस मनोविज्ञान को समझने वाले लोक में सफल होते दिखते हैं परन्तु यह सुखी होने का सही उपाय नहीं है। (५०) जो होना है सो निश्चित है और जब होना है, वह भी निश्चित है। न हम किसी घटना को टाल सकते हैं, न आगे-पीछे ही कर सकते हैं, अतः पश्चाताप के आँसू बहाने से क्या? बस प्रायश्चित ही काफी है। जीवन कैसे जिया जाय? इसकी विधि क्या है? इसका यथार्थ ज्ञान न होने से जिसप्रकार प्यासा मृग मरीचिका में ही जल के भ्रम से भटक-भटक कर प्राण खो देता है; उसीप्रकार यह मानव भी सच्चे सुख के भ्रम से सुखाभास में ही अपना अमूल्य मानव जीवन खो रहा है। आत्मा में स्वयं का या पर का कुछ भी करने/कराने का विकल्प होना आत्मा के अकर्तृत्व स्वभाव के विरुद्ध होने से अधर्म है। तथा पर व पर्याय के कर्तृत्व के विकल्पों में आकुलता है, दुख है। (५४) जिन्होंने जैनकुल में जन्म लेकर, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का सान्निध्य पाकर, जिनवाणी के श्रवण का सौभाग्य प्राप्त कर भी यदि जैनदर्शन के उन मूलभूत सिद्धान्तों को नहीं समझा जो साक्षात् वीतरागतावर्द्धक हैं, निराकुल सुख और परम शान्तिदायक हैं तो और सब कुछ जानकर भी उन सबके जीवन में अन्धकार ही अंधकार है। सब इष्ट-अनिष्ट संयोग पुण्य-पाप के आधीन हैं, ऐसे उत्कृष्ट-पुण्य का योग धर्मात्माओं को ही होता है; क्योंकि वस्तुस्वरूप की सही समझ व श्रद्धा से सहज ही अन्तर की कषायें मन्द हो जाती हैं; विषयासक्ति भी कम हो जाती है, अतः सर्वप्रथम हमें उन सिद्धान्तों को समझना होगा, जो समता एवं वीतरागता बढ़ाने में सहायक हों। जगत में नाना प्रकार के जीव हैं, उनके कर्मोदय जन्य भाव अनेक प्रकार के हैं, उनकी लब्धियाँ, तज्जन्य जीवों की रुचियाँ एवं कषायों के प्रकार भी अनेक हैं; इसकारण सर्वजीव समान विचारों के होना असम्भव है। अतः परजीवों से उलझना तो उचित है ही नहीं; उनको समझा देने की आकुलता करना भी योग्य नहीं है। आत्मावलम्बन रूप निज हित में प्रमाद न हो - इस प्रकार रहना ही कर्त्तव्य है। मोक्षाभिलाषियों को स्व-पर के साथ वचन विवाद में उलझना योग्य नहीं है। मौन से रहकर आत्मसाधना ही कर्तव्य है। (५२)

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