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सुखी जीवन से
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जिन खोजा तिन पाइयाँ लगते हैं। इससे मरणासन्न व्यक्ति यदि भावुक हुआ या अन्तर्मुखी पुरुषार्थ में कमजोर हुआ तो उसके परिणामों में संक्लेश होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः ऐसे वातावरण से उसे दूर ही रखना चाहिए।
(८१) यद्यपि संन्यास, समाधि व सल्लेखना एक पर्याय के रूप में ही प्रसिद्ध हैं, परन्तु संन्यास समाधि की पृष्ठभूमि है, पात्रता है। सन्यास, संसार, शरीर व भोगों से विरक्तता है और समाधि समता भाव या कषाय रहित शान्त परिणामों का नाम है तथा सल्लेखना जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है, जो दो शब्दों से मिलकर बना है - सत् + लेखना = सल्लेखना। इसका अर्थ होता है - सम्यक्प्रकार से काय व कषायों को कृश करना।
(८२) जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि ऐसी अनिवार्य परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण धर्म साधना आत्म-आराधना एवं व्रतादि का पालन करना सम्भव न रहे तो आत्मा के आश्रय से कषायों को कृश करते हुए अनशनादि तपों द्वारा काय को भी कृश करके धर्मरक्षार्थ मरण को वरण करने का नाम सल्लेखना है। इसे ही मृत्यु महोत्सव कहते हैं।
(८३) आत्मा की अमरता से अनभिज्ञ अज्ञजनों की दृष्टि में मरण' सर्वाधिक दुखद, अप्रिय, अनिष्ट व अशुभ प्रसंग के रूप में ही मान्य रहा है। उनके लिए मरण एक ऐसी अनहोनी अघट घटना है, जिसकी कल्पनामात्र से उनका कलेजा काँपने लगता है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, हाथ-पाँव फूलने लगते हैं। उन्हें ऐसा लगने लगता है, मानो उन पर कोई ऐसा अप्रत्याशित अनभ्र वज्रपात होने वाला है जो उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देगा। ऐसी स्थिति में उनका मरण 'समाधिमरण' में परिणत कैसे हो सकता है।
(८४) ज्ञानी सम्यग्दृष्टि व अज्ञानी मिथ्यादृष्टि के मृत्युभय में जमीन आसमान का अन्तर होता है; क्योंकि उनकी श्रद्धा में महान अन्तर होता है।
जहाँ स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है, वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके मरण को समाधिमरण में एवं मृत्यु को महोत्सव में परिणत कर उच्च गति प्राप्त करता है।
(८५) यदि दूरदृष्टि से विचार किया जाय तो मृत्यु जैसा मित्र अन्य कोई नहीं है, जो जीवों को जीर्ण-शीर्ण-जर्जर तनरूप कारागृह से निकाल कर दिव्य देहरूप देवालय में पहुँचा देता है।
(८६) अरे । सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो मृत्यु कोई गम्भीर समस्या ही नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता। तत्त्वज्ञानी यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तरण मात्र है, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतारकर नया वस्त्र धारण करने के समान है।
सम्यग्दृष्टि या तत्त्वज्ञानी को देह में आत्मबुद्धि नहीं रहती। वह देह की नश्वरता, क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होता है।
(८७) मृत्यु के समय ज्ञानी की आँखों में आँसू देखकर उसे अज्ञानी नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि वह अभी श्रद्धा के स्तर तक ही मृत्युभय से मुक्त हो पाया है। चारित्रमोहजनित कमजोरी तो अभी है ही। फिर भी वह विचार करता है कि स्वतंत्र स्वसञ्चालित अनादिकालीन वस्तु व्यवस्था के अन्तर्गत मरण भी एक सत्य तथ्य है, जिसे न तो नकारा ही जा सकता है, न टाला ही जा सकता है और न आगे-पीछे ही किया जा सकता है।
यद्यपि ज्ञानी व अज्ञानी अपने-अपने विकल्पानुसार इन प्रतिकूल परिस्थितियों को अन्त तक टालने के भरसक प्रयास करते हैं, तथापि उनके वे प्रयास सफल नहीं होते, हो भी नहीं सकते।