Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 54
________________ सुखी जीवन से १०५ १०४ जिन खोजा तिन पाइयाँ निमित्त - जो पदार्थ स्वयं तो कार्यरूप परिणत न हो; परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने से जिस पर कारणपने का आरोप आता है, उसे निमित्त समवाय कहते हैं। सुख के अनुकूल अन्तरंग कारण तो पुण्य का उदय एवं बहिरंग कारणों में अनुकूल स्त्री-पुत्र, धन्य-धान्य आदि की उपस्थिति निमित्त नामक पाँचवाँ समवाय है। (६०) परद्रव्यों में स्वेच्छानुसार परिवर्तन करने के मिथ्या अहंकार में आत्मा का पुरुषार्थ नहीं है। अरहन्त भगवान भी जगत के ज्ञाता-दृष्टा ही है, कर्ताभोक्ता नहीं हैं तो क्या इससे उनका अनन्त पुरुषार्थ समाप्त हो जाता है? नहीं, कदापि नहीं; तीर्थंकर भगवान का अनन्त पुरुषार्थ निज में है, निज के लिये है; पर में कुछ भी परिवर्तन करे - ऐसी शक्ति तो अनन्त वीर्य के धनी परमात्मा में भी नहीं है। अन्यथा प्रत्येक परमाणु की स्वतंत्रता के सिद्धान्त पर प्रश्न चिन्ह लगता है। ___पुरुषार्थ जीव के वीर्य गुण की पर्याय है, इसलिए जीव के पुरुषार्थ का अस्तित्व जीव में ही होता है। अरहन्त भगवान अपने अनन्त वीर्य के द्वारा अपने अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त भोगों का उपभोग करते हैं; परन्तु वे पर में कुछ भी नहीं करते। पर में कोई कुछ करे - ऐसी सामर्थ्य वस्तु के स्वरूप में ही नहीं है। अतः पर में पुरुषार्थ करने का प्रश्न ही नहीं होता। साफ लिखा है कि - जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से, वह अवश्य होता है उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र तक नहीं टाल सकते। जिसे जहाँ, जिस कारण से, जो वस्तु प्राप्त होनी होती है; उसे वहाँ, उसी कारण से वही वस्तु अवश्य प्राप्त होती है। वस्तु का स्वभाव तो पूर्ण व्यवस्थित होता ही है; उसका विभाव स्वभाव भी पूर्ण व्यवस्थित एवं अपने पाँचों समवायों पूर्वक ही होता है। (६२) पाँच समवायों में निमित्त भी एक ऐसा समवाय है, जो पर के कार्यों में अकिञ्चित्कर होते हुये भी पर में कर्तृत्व का भ्रम उत्पन्न करता है; क्योंकि कार्य निष्पन्न होने में उसका भी घना सम्बन्ध है। निमित्त पर के परिणामों या कार्यों का उत्पादक नहीं है; कार्योत्पत्ति में उसका तो मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। योद्धाओं के द्वारा युद्ध किए जाने पर राजा ने युद्ध किया - ऐसा लोकव्यवहार में कहते हैं, उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किया - ऐसा भी व्यवहार से कहा जाता है। समयसार कलश २०० में भी लिखा है - नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्त्वयोः । कर्तृकर्मत्वसम्बधाभावे, तत्कर्तृता कुतः ।। इसका अर्थ यह है कि परद्रव्य का और आत्मद्रव्य का परस्पर कोई भी सम्बन्ध नहीं हैं। इसप्रकार कर्तृ-कर्मत्व सम्बन्ध के अभाव में आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कैसे हो सकता है? (६३) सुख-दुःख जीव के कार्य हैं; क्योंकि वे जीव के सुख गुण के विभाव परिणाम हैं तथा वे शुभ-अशुभ कर्मों के निमित्त से होते हैं। प्रत्येक द्रव्य की पर्यायें नियत क्रम से होती है; इसका आशय यह है कि जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थ पूर्वक जैसी होनी है; उस द्रव्य की वह पर्याय, उसी काल में उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थ पूर्वक, वैसी ही होती है, अन्यथा नहीं; क्योंकि कार्य के सम्पादन में पाँचों समवाय एक साथ होते हैं। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा ३२१, ३२२ एवं ३२३ में साफ

Loading...

Page Navigation
1 ... 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74