Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 23
________________ विदाई की बेलासे जिन खोजा तिन पाइयाँ समाधिपाठ को मात्र मृत्यु के अवसर पर पढ़ने की वस्तु नहीं मानना चाहिए और न उसे मृत्यु से ही जोड़ना चाहिए। यह जीवनभर चिंतवन करने का विषय है, ताकि साधक का मृत्यु के समय भी ज्ञान-वैराग्य जागृत रहे और उसे मोह की मार मूर्च्छित न कर सके। (२४) कौन जाने किस जीव की कब काललब्धि आ जावे, किसकी परिणति में कब/क्या परिवर्तन आ जावे? किसका कब/कैसा भाग्योदय हो जावे? यही बात मौत के संबंध में भी लागू पड़ती है। अतः सदैव जागृत रहने की जरूरत है। (२५) भाग्योदय से ज्ञानियों के जीवन में यदि अनुकूल संयोगों का बनाव बन भी जावे तो वे तो इस ठाठ-बाट की क्षण-भंगुरता को भली-भाँति जानते हैं, अतः वे इस ठाठ-बाट में तन्मय नहीं होते, इनसे प्रभावित भी नहीं होते। यदि यही सब अनुकूल संयोग अज्ञानियों को मिल जायें तो उन्हें अपच हुए बिना नहीं रहता, अभिमान हुए बिना नहीं रहता। (२६) तुम जिन स्त्री-पुत्र, कुटुम्ब-परिवार के मोह-जाल में उलझकर अपना अमूल्य मानव जीवन बर्बाद कर रहे हो, अपने हिताहित को बिल्कुल भूल बैठे हो, अपने भविष्य को अंधकारमय बना रहे हो, वे कुटुम्बीजन कोई भी तुम्हें दुःख के दिनों में काम नहीं आयेंगे। यह जगत बड़ा स्वार्थी है। जिन्हें तुम अपना कहते हो, ये सब स्वार्थ के ही सगे हैं। अतः तुम कुटुम्ब-परिवार के मोह में पड़कर अब अधिक पाप में न पड़ो। पाप से अर्जित धन-वैभव का उपभोग ये करेंगे और पाप का फल तुम्हें अकेले ही भोगना पड़ेगा। कोई किसी को सुखी-दुःखी नहीं कर सकता, जीवन-मरण नहीं दे सकता; क्योंकि कोई किसी को अपने पुण्य-पाप आयु नहीं दे सकता।" (२७) संसार, शरीर व भोगों को असार, क्षणिक एवं नाशवान तथा दुःखस्वरूप व दुःख का कारण मानकर उनसे विरक्त होना ही सन्यास है। तथा समताभाव को समाधि कहते हैं। शास्त्रीय शब्दों में कहें तो, कषाय रहित शांत परिणामों का नाम ही समाधि है। तत्त्वों का मनन, मिथ्यात्व का वमन, कषायों का शमन, इन्द्रियों का दमन, आत्मा में रमण - यही सब तो समाधि है। समाधि के लिए सर्वप्रथम स्वरूप की समझ अत्यावश्यक है तथा यह स्वरूप की समझ पंचपरमेष्ठी की पहचानपूर्वक होती है, सच्चे-देव-शास्त्रगुरु की यथार्थ श्रद्धा उसमें निमित्त होती है। एतदर्थ सर्वप्रथम देव-शास्त्रगुरु की शरण में आना होगा, पंचपरमेष्ठी का स्वरूप समझना होगा। (२८) __पुरुषों की बहुत सी कलाओं में दो कलायें ही प्रमुख हैं - एक जीविका दूसरी जीवोद्धार । पुण्योदय से पहली कला में तो तुम सफल रहे ही हो । अब तत्त्वज्ञान का अभ्यास करके दूसरी कला को भी तुम हासिल करो । संन्यासपूर्वक समाधि की साधना करके अपने शेष जीवन को भी सार्थक कर लो। (२९) अधिकांश व्यक्ति तो ऐसे होते हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों से घबड़ाकर, जीवन से निराश होकर जल्दी ही मर जाना चाहते हैं, दुःखद वातावरण से छुटकारा पाने के लिए समय से पहले ही दिवंगत हो जाना चाहते हैं, पर ऐसे भावों से सद्गति नहीं होती। सौभाग्य से यदि अनुकूलतायें मिल गईं तो आयु से भी अधिक जीने की निष्फल कामना करते-करते अति संक्लेश भाव से मरकर कुगति के ही पात्र बनते हैं। ऐसे लोग दोनों ही परिस्थितियों में जीवन भर जगत के जीवों के साथ और अपने-आपके साथ संघर्ष करते-करते ही मर जाते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर नहीं उठ पाते, कषाय-चक्र से बाहर नहीं निकल पाते। (२३)

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