Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 43
________________ इन भावों का फल क्या होगा से जिन खोजा तिन पाइयाँ झूला, सोने की चम्मच मुँह में थी, दूसरा बालक फुटपाथ पर पैदा हुआ, भीख का कटोरा ही जीवनभर उसके हाथ में रहा । आखिर यह अन्तर क्यों? उत्तर होगा - सबके परिणाम एक से नहीं होते। पुण्य-पाप का बंध एक-सा नहीं होता। जिसने पिछले जन्म में जैसे शुभ-अशुभ परिणाम किए तदनुसार उसके पुण्य-पाप का बंध हुआ। उसके फलस्वरूप ही यह विविधता पाई जाती है। यदि ऐसा नहीं होता तो जन्म से ही कोई सुखी व कोई दुःखी क्यों है? यदि पुनर्जन्म नहीं होता तो जन्म से ही व्यक्ति प्रतिभावान नहीं हो सकता था। जिसे लोक में ईश्वरीय देन कहा जाता है, गॉड गिफ्ट माना जाता है; वह सचमुच और कुछ नहीं, पूर्व जन्म के संस्कार ही हैं। (५२) जैनधर्म श्रद्धा एवं भावना प्रधान धर्म है। सम्यक् एवं मिथ्या श्रद्धा और शुभाशुभ भावों से ही धर्म-अधर्म एवं पुण्य-पाप होता है, बाह्य शारीरिक क्रियाओं से नहीं। पर बाहरी दैहिक क्रियायें भी अंतरंग भावों का ही अनुसरण करती हैं। यदि अन्दर आत्मा में क्रोध भाव है तो मुखाकृति पर भी क्रोध की रेखायें दिखाई देने लगती हैं, भृकुटी तन जाती है, आँखें लाल हो जाती हैं, ओष्ठ फड़कने लगते हैं और काया काँपने लगती है; पर ध्यान रहे, पापबन्ध अंतरंग आत्मा में हुए क्रोधभाव से ही होता है, बाह्य शारीरिक विकृति से नहीं। शारीरिक चिन्ह तो मात्र अंतरंग भावों की अभिव्यक्ति करते हैं, उनसे पाप-पुण्य नहीं होता। पवित्र भावना से पूर्ण सावधानी पूर्वक डॉक्टर के द्वारा रोगी को बचाने के प्रयत्नों के बावजूद यदि ऑपरेशन की टेबल पर ही रोगी का प्राणांत हो जाता है तो डॉक्टर को दोषी नहीं माना जाता, हिंसाजनित पापबंध भी नहीं होता। वैसे ही चार हाथ आगे जमीन देखते हुए चलने पर भी यदि पैर के नीचे कोई सक्ष्म जीव मर जाता है तो मुनिराज को भी हिंसा का किंचित दोष नहीं लगता। अतः यह सिद्ध है कि - आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है तथा आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है। (५५) जैनदर्शन में पाप-पुण्य एवं धर्म-अधर्म जीवों के भावों एवं श्रद्धा पर निर्भर करता है। जिन कार्यों में जैसी श्रद्धा एवं भावनायें जुड़ी होंगी, कर्मफल उनके अनुसार ही प्राप्त होगा। हिंसा-अहिंसा की भाँति झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह आदि पापों के विषय में कहा है कि आत्मा के घातक होने से झूठ-चोरी-कुशील व परिग्रह पाप भी हिंसा में ही गर्भित हैं। आत्मघाती होने से ये भी हिंसा के ही विविध रूप हैं; जोकि महादुःखदाता होने से सर्वथा त्याज्य हैं; परन्तु पता नहीं, फिर भी लोगों ने इन्हें मनोरंजन का साधन क्यों समझ रखा है? शिकार जैसी संकल्पी हिंसा, कुशील जैसा अनर्थकारी पाप तथा जुआ और नशा जैसे दुर्व्यसनों को भी लोगों ने मनोरंजन का साधन समझ रखा है; यह आश्चर्य है। (५६) यह मिथ्यात्व आत्मारूपी घर के कोनों में चूहों की तरह कहाँ-कहाँ छुपा हुआ रहता है और तत्त्वज्ञान के महत्वपूर्ण दस्तावेजों को, संयम और सदाचार के कीमती कपड़ों को कुतरता रहता है। (५७) अन्तरंग में जिनके पूर्ण समताभाव हो, वीतराग परिणति हो तो बाहर में उनकी परमशान्त मुद्रा ही दिखाई देगी। न हंसमुख न उदास । ऐसा ही सहज संबंध होता है अन्तरंग-बहिरंग भावों का । इसे ही निमित्त-नैमित्तिक संबंध भी कहते हैं। इसलिये कहा जाता है कि भावना भवनाशनी - भावना भववर्धनी' अर्थात् भावों से ही भव अर्थात् संसार में जन्म-मरण के दुःख का नाश होता है और भावों से ही जन्म-मरण का दुःख बढ़ता है। (५४) (४३)

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