Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 45
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ सब देखकर भारी दुःख होता है, परन्तु जब कुएँ में ही भाँग पड़ी हो तो कोई क्या कर सकता है। अन्त में यह सोचकर धैर्य धरना पड़ता है कि जिन मूक प्राणियों पर ये अत्याचार हो रहे हैं, इन्होंने दूसरों पर ऐसे ही अत्याचार किए होंगे, जिसका ये दुःखद फल इन्हें भोगना पड़ रहा है। यदि हम चाहते हैं कि भविष्य में हमारे साथ ऐसा निर्दय व्यवहार न हो तो हम अपने स्वार्थ और स्वाद के लिए दूसरों के प्राणों को पीड़ित नहीं करें, उनकी हत्यायें न करें न करायें। अन्यथा एक दिन वह आयेगा, जब हम भी बूचड़खानों में कटने वालों की कतार में खड़े होंगे। सुखी जीवन से का सान्निध्य होगा तो जो हालत नवनीत की होती है, वही हालत नर की हो जायेगी। अतः मेरा तो दृढ़ निश्चय है कि किसी भी नर और नारी को एक साथ एकान्त में नहीं रहना चाहिए। (८) जिसका जिसमें अपनत्व हो जाता है, वह उसके लिए सर्वस्व समर्पण कर देता है। फिर दोनों का सुख-दुःख, उन्नति-अवनति एक हो जाती है। यदि किसी में भी कोई योग्यता की कमी दृष्टिगोचर हुई भी तो उसे दूर करने में दोनों के सम्मलित प्रयास प्रारम्भ हो जाते हैं। (९) काम करते-करते थकावट अनुभव करने पर आटे में नमक की भाँति शुद्ध-सात्विक लौकिक कलाओं के द्वारा अपना उपयोग पलट कर विश्राम लेकर पुनः अपने प्रयोजनभूत काम को करने में ही हमारी भलाई है। संसार में जो आया है, उसे जाना तो पड़ता ही है; पर जाने के पहले यदि वह कुछ ऐसे काम करले, जिनसे स्व-पर कल्याण हो सके तथा अपने स्वरूप को जान ले, पहचान ले, उसी में जम जाये, रम जाये, समा जाये तो उसका जीवन धन्य हो जाता है, सार्थक हो जाता है, सफल हो जाता है। प्रत्येक कल्याणकारी भला काम सबसे पहले हमें अपने घर से ही प्रारम्भ करना चाहिए। पहले पत्नी-पुत्र-पुत्रियाँ आदि परिजन, फिर अड़ौसीपड़ौसी और पुरजन, उसके बाद शक्ति अनुसार जितना भी सम्भव हो सके देश-देशान्तरों में भी उस भले काम का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। सहशिक्षा के पक्ष-विपक्ष में बहुत बातें होती हैं। दोनों पक्षों द्वारा इसकी अच्छाई-बुराई और लाभ-हानि के नाना तर्क दिये जाते हैं; परन्तु जब कलयुगी छात्र-छात्राओं की कामुक-कमजोरियाँ देखते हैं तो पक्ष के सभी तर्क निरर्थक साबित होते दिखते हैं। सम्भ्रांत कुल के माता-पिता (पालक) भी अपने बालक-बालिकाओं की इस कमजोरी से घबराते हैं। कोई कितना भी चिर-परिचित क्यों न हो? नजदीकी रिश्तेदार भी क्यों न हो और अत्यन्त विश्वसनीय व्यक्ति ही क्यों न हो, नर-नारी को एकांत में रहना खतरे से खाली नहीं है, क्योंकि नारी को आचार्यों ने अंगार की उपमा दी है और नर को नवनीत (मक्खन) की उपमा दी है, जब इन दोनों ___ घर-परिवार की मान-मर्यादायें तोड़ना और स्वछन्द प्रवृत्ति करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। क्या निहाल करती हैं वे लड़कियाँ जो अधिक आधुनिक बनकर स्वछन्द हो जाती हैं? अधिकांश तो अपने माता-पिता और समाज के लिये सरदर्द ही बनती हैं। भले और बड़े काम तो मानमर्यादा में रहकर ही हो सकते हैं। जितने भी महापुरुष हुये हैं, महान नारियाँ हुई हैं; सभी एकदम साधारण भारतीय वेश-भूषा में ही रहते थे। सादा जीवन उच्च विचार मय जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है।

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