Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 48
________________ ९३ सुखी जीवन से ओर अन्र्तमुख करने की देर है कि समझ लो आत्मा का दर्शन हो गया। __लोक की यह वस्तु व्यवस्था भी बड़ी विचित्र है। सभी द्रव्यों में ये सामान्य गुण विद्यमान हैं, जो वस्तु के स्वतंत्र और स्वावलम्बी होने का उद्घोष कर रहे हैं। जिन खोजा तिन पाइयाँ अस्तित्व गुण सब द्रव्यों में पाया जाता है। अतः यह सामान्य गुण हुआ। वस्तुत्वगुण भी उन्हीं सामान्य गुणों में से एक गुण है। जो गुण सब द्रव्यों में न रहकर अपने-अपने द्रव्यों में रहते हैं, उन्हें विशेष गुण कहते हैं। जैसे - ज्ञान-दर्शन-गुण केवल आत्मा में ही होते हैं, अन्य पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश व कालद्रव्य में नहीं। अतः ये जीवद्रव्य के विशेष गुण हैं। इसी तरह पुद्गल में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा धर्मद्रव्य में गति हेतुत्व, अधर्म द्रव्य में स्थिति हेतुत्व, आकाश द्रव्य में अवगाहन हेतुत्व और कालद्रव्य में परिणमन हेतुत्व इनके विशेष गुण हैं। ___ वैसे तो प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण हैं, सामान्य गुण भी अनेक हैं; परन्तु उनमें छह मुख्य हैं - अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व। __अस्तित्व गुण :- जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी भी अभाव नहीं होता उसे अस्तित्व गुण कहते हैं। वस्तुत्व गुण :- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थ क्रिया हो, प्रयोजनभूत क्रिया हो; उसे वस्तुत्व गुण कहते हैं। द्रव्यत्व गुण :- जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्था निरन्तर बदलती रहे, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। प्रमेयत्व गुण :- जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय बने, उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं। अगुरुलघुत्व गुण :- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में द्रव्यपन कायम रहता है, एकद्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं होता, एक गुण दूसरे गुणरूप नहीं होता और द्रव्य में रहने वाले अनन्त गुण बिखर कर अलग-अलग नहीं होते, उसे अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। आत्मा भी एक वस्तु है, उसमें भी प्रमेयत्व गुण है, अतः वह भी जाना जा सकता है। बस थोड़ा-सा पर व पर्याय पर से उपयोग हटाकर आत्मा की यद्यपि अपने में ऐसी कोई योग्यता नहीं है कि पर में कुछ किया जा सके; परन्तु यदि किसी की भली होनहार हो तो निमित्त तो बन ही सकते हैं; अतः भूमिका के विकल्पानुसार प्रयत्न करने में हानि भी क्या है? (३३) जिसप्रकार भूमि को कृषि के योग्य उपजाऊ बनाये बिना बीज बोना बीज की बर्बादी ही है; उसीप्रकार क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, आदि पञ्चलब्धियों से आत्मा की भूमि को सम्यक्त्व धारण के योग्य बनाये बिना धर्म के बीज बोने का प्रयत्न निष्फल है, समय व शक्ति की बर्बादी है। ___ आत्मा की भूमि में अल्पज्ञता की घास-फूस और तीव्रकषाय के कंकड़-पत्थरों के रहते धर्मोपदेश के महँगे बीज कैसे बोये जा सकते हैं? और धर्म के बीज बोये बिना सम्यक्त्वरूप धर्मवृक्ष की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। अतः सम्यक्त्व के प्रगट होने के पूर्व क्रमशः उपर्युक्त पाँच लब्धियाँ होना अनिवार्य है। इनमें आदि की चार लब्धियाँ तो सामान्य हैं। ये लब्धियाँ भव्यों के तो हो ही जाती हैं, अभव्यों को भी हो जाती हैं; परन्तु इन चारों के होने पर भी सम्यक्त्व होने का कोई नियम नहीं है; जबकरणलब्धि होती है, तब ही सम्यक्त्व होता है। __ संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य, देव, नारकी एवं तिर्यञ्च को आत्मा का स्वरूप समझने योग्य जो ज्ञान का क्षयोपशम है, बस वही क्षयोपशमलब्धि है। परिणामों की ऐसी निर्मलता एवं कषायों की ऐसी मन्दता, जिसमें जिनवाणी सुनने की रुचि हो, वह विशुद्धिलब्धि है तथा जिनवाणी सुनने का सौभाग्य प्राप्त हाना दशनालाब्धहा (४८)

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