Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ पारिवारिक गोरख-धंधे में उलझे होते । निश्चित ही किसी न किसी पापप्रवृत्ति में ही पड़े होते, कोई न कोई विकथा ही करते होते। जितना समय पूजा-पाठ में गया, उतनी देर विषय-कषाय से तो बचे ही रहे न? हानि क्या हुई? अतः इसे सर्वथा निरर्थकता नहीं कह सकते; पर इसी में अटके रहना, इसी को धर्म मानकर संतष्ट हो जाना ठीक नहीं है: क्योंकि यह सुअवसर बार-बार नहीं मिलता । समुद्र में फैंके मणि की भाँति ऐसे सुअवसरों की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है, जिसमें सत्य की शोध-खोज की जा सकती इन भावों का फल क्या होगा से सुनना ही नहीं चाहते, अपनी लीक से हटना ही नहीं चाहते? (७) कुलाचाररूप व्यवहार धर्म का निर्वाह सदाचार के संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए ठीक है, परन्तु प्रत्येक कुल एवं प्रत्येक जाति के धर्म का स्वरूप अलग-अलग कैसे हो सकता है? धर्म का स्वरूप तो एक ही होना चाहिए। वह भगवान कैसे हो सकता है, जो साधारणजन की भाँति ही राग-द्वेष के वशीभूत होकर भक्तों की जरा-जरा सी बात पर रुष्ट-तुष्ट हो जाता है। भगवान तो वीतरागी, सर्वज्ञ, समदर्शी एवं सर्वदर्शी होते हैं। है। वास्तविक स्थिति यह है कि अज्ञान दशा में की गई भावशून्य क्रियायें थोथी होती हैं, अभीष्ट फलदायक नहीं होती। जो बिना आत्मज्ञान के धार्मिक क्रियायें करते हैं तथा जो बिना क्रिया किये मोक्षपद चाहते हैं, जो बिना मुक्त हुए अपने को सुखी मानते हैं; वे सचमुच मूल् के सरदार हैं। अतः धर्म का यथार्थज्ञान तो होना ही चाहिये। यह मनुष्य जन्म और उसमें भी ऐसे सुन्दर संयोग कोई बार-बार थोड़े ही मिल जाते हैं। न जाने किस जन्म का पुण्य फला होगा जो यह सुअवसर हाथ आ गया है। सचमुच यह अंधे के हाथ बटेर आ गई है। अतः धर्म का सही स्वरूप समझ कर हमें इसका तो पूरा-पूरा लाभ उठाना ही होगा। फैशन के मामले में दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई। पगड़ी गई, साफा आया; साफा गया, टोपी आई; टोपी भी गई, नंगा सिर रह गया; नंगे सिर वालों ने भी नित्य नये आकार बदले; कभी हिप्पीकट तो कभी सफाचट । पर सच्चे सिक्खने न पगड़ी छोड़ी और न जूड़ा छोड़ा। सच्चे मुसलमान ने भी लम्बी दाढ़ी और गोल टोपी नहीं छोड़ी। इसी तरह हमारे जैनकुल के भी कुछ मौलिक सिद्धान्त हैं, धर्म के कुछ नियम हैं। हम उन्हें क्यों छोड़ें? धर्म से भय कैसा? धर्मभीरूता ही तो व्यक्ति को धर्मान्ध बनाती है। अतः कोई कुछ भी क्यों न कहे - एक बार तो शान्ति से ऊहापोह करके धर्म एवं पुण्य-पाप की तह तक पहुँचना ही होगा। धर्म के तलस्पर्शी ज्ञान बिना ऊपर-ऊपर से धर्मात्मा बने रहना अपने को अन्धकार में रखना है। दृढ़ता से धार्मिक नियमों का निर्वाह करना बहुत अच्छी बात है। इस अर्थ में कट्टरता बुरी बात नहीं है; परन्तु वह कट्टरता सुपरीक्षित एवं सुविचारित होनी चाहिए; अन्यथा सुधार की संभावनायें सम्पूर्णतः क्षीण हो जायेंगी। बिना परीक्षा किये, बिना विचार किये किसी भी कुल परिपाटी को धर्म मानकर बैठ जाना और उससे टस से मस न होना - यह भी तो कोई धर्म का मार्ग नहीं है। पर ऐसे कट्टरपंथियों को कौन समझाये जो किसी की कुछ लोक जीवन में यदि कोई नास्तिक पापी धर्म के नाम पर, धर्म की आड़ में धोखाधड़ी करे तो इससे धर्म कपोल-कल्पित कैसे हो गया? सभी सच्चे धर्मात्मा ढोंगी कैसे हो गये? (३३) अज्ञानी होना उतना हानिकारक नहीं है, जितना हानिकारक है अपने

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