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इन भावों का फल क्या होगा से
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जिन खोजा तिन पाइयाँ कषाय में एवं इन्द्रिय के भोगों में खोना मानो अनन्त काल के लिए अनन्त दुःखों को आमंत्रण देना है। नरक-निगोद में जाकर असीमित दुःखों के गर्त में गिरना है।
धन-धान्य, सोना-चाँदी, राज-पाट - ये सब सांसारिक सुख तो अनन्तबार मिले, अतः ये सब तो सुलभ हैं; पर तत्त्वज्ञान अनादिकाल से आज तक नहीं मिला, इसकारण अब भी उसकी प्राप्ति बहुत दुर्लभ है।
अतः अब एकक्षण भी इन विषय-कषायों व राग-द्वेष में बर्बाद करना उचित नहीं है। और सुनो! व्यवहार धर्म भी हमने बहुत बार पालन किया। इतनी बार तो हम दिगम्बर मुनि बने कि यदि हम अपने उन पिच्छिकमण्डलुओं के ढेर लगायें तो सुमेरू पर्वत बराबर ढेर होगा, फिर भी तत्त्वज्ञान से अछूते रहने के कारण मोक्षमार्ग नहीं मिला। अतः अकेले व्यवहार धर्म में ही अटके रहना ठीक नहीं है, बल्कि इसी जीवन में यथार्थ तत्त्वज्ञान प्राप्त करना है।
धन कमाते-कमाते, धन का विविध भोगों में उपयोग करते-करते यदि जिन्दगी बीत जायेगी तो पुनः यह अवसर नहीं आयेगा।
जो धर्म शास्त्रों के स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेते हैं, वे तत्त्वज्ञान के बल से धीरे-धीरे अपनी इच्छाओं को जीत लेते हैं;
और विषयों की निःसारता को भली-भाँति समझ लेते हैं। इसकारण उनको विषयों की इच्छा व्यर्थ लगने लगती है। वे अपने पुण्योदय से प्राप्त न्यायोपात्त सामग्री में ही संतुष्ट रहते हैं। ऐसे जीव ही सचमुच धर्मात्मा हैं।
(४४) अभी हमें धर्म से धन अधिक महत्त्वपूर्ण लगता है। अरे! जिस धन के लिए हम ऐसे पागल हो रहे हैं, वह धन तो धर्मात्माओं के चरण चूमता हुआ चला आता है और धर्मात्मा उसकी ओर देखते तक नहीं हैं। क्या देखे उसे? अतः अर्थशास्त्र के साथ-साथ यदि धर्मशास्त्र का भी गहन अध्ययन
किया जाये तो निश्चित ही सन्मार्ग मिलना सुलभ हो सकता है।
जो चक्रवर्ती भोग भोगते हुए चक्रवर्ती पद में ही मरता है, वह नियम से नरक में ही जाता है। आर्त-रौद्रध्यान से मरने वालों को इनके फल में कैसीकैसी कुगतियाँ प्राप्त हुईं, इसका विस्तृत विवरण देखना हो तो पुराणों को पढ़ो, सब पता लग जायेगा।
बहुत से लोगों को तो यह भी पता नहीं होगा कि ये नरक-निगोद क्या बला है? अरे भाई! ये ऐसी दुर्गतियाँ हैं जहाँ हमें हमारे पापाचरण का भयंकर फल प्राप्त होता है, अत्यन्त दुःखद स्थिति में सागरोपर्यन्त रहना पड़ता है। यदि उन्हें यह पता होता तो वे लोग व्यर्थ ही इस आर्त-रौद्रध्यान रूप पापभावों के चक्कर में नहीं पड़े रहते, जिसके फल में ये कुगतियाँ मिलती हैं।
जो लोग परिग्रह में मग्न रहकर, पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सुख मानकर, उन्हीं के संग्रह और भोगोपभोग में अपना अमूल्य समय बर्बाद करते रहते हैं; वे लोग नियम से इन नरकों में जाते हैं, जहाँ भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और परस्पर कलह आदि के अन्तहीन असह्य दुःख भोगते हैं। ___ सदाचारी और अहिंसक रहने में तो लाभ ही लाभ है, हानि क्या है? हम तो स्वस्थ और प्रसन्न रहेंगे ही, दूसरे प्राणी भी निर्भय होकर जी सकेंगे।
(४५) यद्यपि नरक हमें दिखाई नहीं देते फिर भी उनका अस्तित्व आगम युक्ति और तर्कों से सिद्ध होता है। देखा तो हमने अपने पितृकुल के पूर्वजों को भी नहीं है, फिर भी वे थे या नहीं? यदि वे न होते तो हम कहाँ से कैसे होते?
नरकों के अस्तित्व को सिद्ध करने की दूसरी युक्ति यह है कि - यदि कोई एक जीव की हत्या करता है तो उसका फल एक बार फाँसी की सजा है; परन्तु जो रोजाना अपने शारीरिक सुख और जिह्वा के स्वाद के लिए अनन्त जीवों की हिंसा करता हो, उसको अनन्तबार फाँसी जैसी सजा इस
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