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जिन खोजा तिन पाइयाँ
है, उन्हीं का मरण समाधिपूर्वक होता है। अतः हमें मरण सुधारने के बजाय जीवन को सुधारने का ही प्रयत्न करना होगा।
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जब तक हमारे मनोविकारों को जन्म देने वाली सांसारिक समस्याओं का समुचित समाधान नहीं होता, तबतक इन क्रोधादि मनोविकारों का अभाव कैसे हो सकता है?
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तीन लोक में जितने भी पदार्थ हैं, वे सब अपने-अपने स्वभाव से स्वतंत्र रूप से मिलते-बिछुड़ते हैं, स्वयं ही आते जाते हैं । उनमें परस्पर कर्ता-कर्म संबंध नहीं है। मात्र निमित्त नैमित्तिक संबंध है।
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जब संयोग के मिलाने में या अलग करने में, किसी का भला-बुरा होने में, सुख-दुःख पाने में किसी अन्य का कुछ हस्तक्षेप ही नहीं है तो कोई किसी पर बिना कारण क्रोधादि क्यों करें? खेद-खिन्न क्यों हो? हर्ष-विषाद क्यों करे? संक्लेशित भी क्यों हो?
वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त की श्रद्धावाले व्यक्ति तो केवल ज्ञाता-दृष्टा रहकर सब परिस्थितियों में साम्यभाव ही धारण करते हैं, उन्हें संयोगों में सुख बुद्धि नहीं रहती; क्योंकि वे जानते हैं कि संयोगों में सुख है ही नहीं । (80)
पुण्य-पाप के सिद्धान्तानुसार भी कोई किसी को सुखी - दुःखी नहीं कर सकता । अतः पुण्य-पाप का यथार्थ श्रद्धान होने से भी पर के प्रति राग-द्वेष की परिणति कम हो जाती है। सामायिक पाठ में कहा है -
स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो, स्वयं किये निष्फल होते ।। अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी । पर देता है यह विचार तज, थिर हो छोड़ प्रमाद बुद्धि ।।
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विदाई की बेला से
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सूर्योदय के पूर्व ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी के स्वरूप का स्मरण करना चाहिए। तत्पश्चात् “मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप क्या है? मेरे लिए क्या है है और क्या उपादेय?" इसका विचार करना चाहिए। कहा भी है"मैं कौन हूँ, आया कहाँ से, और मेरा रूप क्या ? संबंध सुखमय कौन है, स्वीकृत करूँ परिहार क्या ? इसका विचार विवेकपूर्वक शान्त होकर कीजिए । तो सर्व आत्मिक ज्ञान अरु सिद्धान्त का रस पीजिए ।। "
( ४२ ) अनादिकाल से अज्ञानी जीव की देह में व रागादि भावों में ही एकत्वबुद्धि है, वह आत्मा के शुद्धस्वरूप को नहीं जान पाया। इस कारण उसे आत्मानुभूति नहीं हुई, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई।
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अज्ञानी देह की उत्पत्ति में अपनी उत्पत्ति मानता है, देह के विनाश में अपना विनाश मानता है। इसीप्रकार देह यदि गोरी-काली, रोगी- निरोगी, मोटी दुबली हो तो स्वयं को वैसा ही मान लेता है। यही मान्यता दुःख का कारण है।
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“मैं तो ज्ञानानन्द स्वभावी अपने आप में स्वयं परिपूर्ण वस्तु हूँ । मुझे पूर्णता प्राप्त करने के लिए एवं सुखी होने के लिए किसी भी पर वस्तु के सहयोग की किंचित् भी आवश्यकता नहीं है।" यह मान्यता सही है।
काला-गोरा आदि तो पुद्गल के परिणाम हैं। जब जीव में जड़पुद्गल के गुण हैं ही नहीं; तो काले-गोरे होने की बात ही कहाँ से आई?
“मैं तो अरस, अरूप, अगंध एवं अस्पर्श स्वरूपी चैतन्य तत्त्व हूँ। मेरा पर पदार्थों से कुछ भी संबंध नहीं है। मैं तो शुद्ध-बुद्ध निरंजन- निराकार एक परम पदार्थ हूँ तथा पर की परिणति से सदा अप्रभावी हूँ।'