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जिन खोजा तिन पाइयाँ आदि मनोविकारों से बचाने, पाँचों इन्द्रियों के विषयों से तथा परद्रव्य पर अटकने-भटकने से भी बचाने तथा आत्मसम्मुख करने के लिए संसार, शरीर भोगों की असारता को बताने वाला वैराग्यवर्द्धक तथा संयोगों की क्षण भंगुरता दर्शानेवाला और आत्मा के अजर-अमर व अविनाशी स्वरूप का ज्ञान कराने वाला आध्यात्मिक वातावरण बनाना जरूरी है। इसके बिना मृत्यु महोत्सव नहीं बन सकती।
(४९) समतापूर्वक शांत भावों से देह त्यागने में हमें समाधिस्थ जीव का सहयोग करना चाहिए, तभी उसकी मृत्यु महोत्सव बन पाती है। देह छूटते समय प्राणी को शारीरिक पीड़ा तो होती है, ध्यान उस पीड़ा पर न जाय, एतदर्थ भी हमें वैराग्यमय वातावरण बनाना चाहिए।
जिसतरह युद्ध के मैदान में सफलता प्राप्त करने के लिए जीवनभर अस्त्र-शस्त्र कला का अभ्यास जरूरी है; उसीतरह मृत्यु को महोत्सव बनाने के लिए जीवन भर तत्त्वाभ्यास जरूरी है।
(५०) यद्यपि लोक दृष्टि में लोक विरुद्ध होने से अन्य उत्सवों की भाँति मृत्यु का महोत्सव खुशियों के रूप में तो नहीं मनाया जा सकता, पर तत्त्वज्ञानियों द्वारा मृत्यु को महोत्सव जैसा महसूस तो कराया ही जा सकता है।
ज्ञानी तत्त्वाभ्यास से ऐसा अनुभव करने लगता है कि - मैं तो इस नाशवान शरीर से भिन्न अजर-अमर अविनाशी हूँ। मेरी तो कभी मृत्यु होती ही नहीं है। मृत्यु तो केवल एक देह से दूसरी देह में गमन क्रिया का नाम है, जो कि आयुपूर्ण होने पर अवश्यंभावी है। जीर्ण-शीर्ण और असाध्य रोगी होने पर साधना में असमर्थ देह को छूटना ही चाहिए, अन्यथा जीर्णशीर्ण शरीर को कोई कब तक ढोता रहेगा।
(५१)
विदाई की बेला से
देह में एकत्व-ममत्व रखने वाले मिथ्यादृष्टि (अज्ञानी) जीवों के लिए मृत्यु दुःखद हो सकती है; क्योंकि उनका शरीर में ही अपनापन होने से वे मृत्यु को अपना सर्वनाश मानते हैं, पर जिन्होंने तत्त्वाभ्यास और वैराग्यजननी बारह भावनाओं के सतत चिन्तन-मनन से संसार, शरीर व भोगों की असारता, क्षणभंगुरता एवं आत्मा की अमरता का भली-भाँति अनुभव कर लिया है, उन भेदविज्ञानियों को तो मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए। तथा - जिनकी परिजन-पुरजनों के प्रति भी ममता नहीं रही है और देह के प्रति भी अपनत्व टूट चुका है। उन्हें तो मृत्यु के भय से भयभीत नहीं होना चाहिए।
(५२) जो समाधि के अनुसार जीवन जीना सीख लेता है, वह वर्तमान में तो पूर्ण निराकुल, अत्यन्त शांत और पूर्ण सुखी रहता ही है, उसका अनंत भविष्य भी पूर्ण सुखमय, अतीन्द्रिय, आनन्दमय हो जाता है।
____ मृत्यु तो सभी की एक न एक दिन होने वाली ही है। इस ध्रुवसत्य से तो कोई कभी इंकार ही नहीं कर सकता। जिन्होंने जन्म लिया है, उन्हें आज नहीं तो कल कभी न कभी तो मरना ही है। और जिनका संयोग हुआ है, उनका वियोग भी अवश्य होना ही है। इस स्थिति को कोई भी टाल नहीं सकता तो क्यों न हम वह क्षण आने के पूर्व ही दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों की तथा दूसरों पर अपने अधिकारों की समीक्षा कर लें, कर्तव्यों एवं अधिकारों की यथार्थता को अच्छी तरह समझ लें; ताकि बाद में किसी को कोई पछतावा न रहे।
(५४) ___ कोई भी किसी के सुख-दुःख का, जीवन-मरण का, उन्नति-अवनति का कर्ता-धर्ता नहीं है, कोई किसी का भला-बुरा कुछ भी नहीं कर
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