Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 30
________________ विदाई की बेला से समाधि मरण के रूप में परिणत कर सकते हैं। यदि असह्य वेदना हो और उपयोग आत्मा में न लगता हो तो उस समय संसार शरीर व भोगों से विरक्त, स्वरूप साधक उपसर्गजयी गजकुमार, सुकौशल एवं सुकुमाल जैसे तपस्वी मुनिराजों का स्मरण करो और सोचो कि उनमें असह्य वेदना को सहने की सामर्थ्य कहाँ से, कैसे आ गई? ऐसा सोचने, विचार करने से हममें भी भेद विज्ञान केवल से वैसा ही साहस व सामर्थ्य प्रगट होने लगेंगे, जिससे कठिनतम प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति हममें अवश्य प्रगट होगी। जिन खोजा तिन पाइयाँ से आती है। फिर भी करुणावश या धर्मस्नेहवश यदि कभी विकल्प आवे तो साधक की स्थिति देखकर जैसी परिस्थिति हो, जिन कारणों से वह स्वरूप से विचलित हो रहा हो, उनकी निरर्थकता का ज्ञान कराया जाना चाहिए। (६३) हे भव्य आत्मन्! जो दुःख तुम्हें अभी है. इससे भी अनन्त गुणे दुःख तुम इस जगत में अनन्तबार जन्म-मरण करके भोग चुके हो, फिर तुम्हारे आत्मा का क्या बिगड़ा? कुछ भी तो नहीं बिगड़ा । अतः अब इस मृत्यु के थोड़े से दुःख से क्या घबराना? देखो, तुम्हारा यह पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान फिर नये दुःख के बीज बो रहा है। अतः इस पीड़ा पर से अपना ध्यान हटाकर आत्मा पर केन्द्रित करो, जिससे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा तो होगी ही, नवीन कर्मों का बंध भी नहीं होगा। (६४) जो असाता कर्म उदय में दुःख आया है, उसे सहना तो पड़ेगा ही। यदि समतापूर्वक साम्यभावों से सहलोगे तथा तत्त्वज्ञान के बल पर संक्लेश परिणामों से बचे रहोगे और आत्मा की आराधना में लगे रहोगे तो दुःख के कारणभूत सभी संचित कर्म क्षीण हो जायेंगे। (६५) तुम चाहे निर्भय रहो या भयभीत, रोगों का उपचार करो या न करो, जो प्रबल कर्म उदय में आया है, वह तो फल दिए बिना जायेगा नहीं। रोगोपचार भी कर्म के मंद उदय में ही लाभप्रद होता है। जब कर्म का तीव्र उदय हो तब कोई भी औषधि निमित्तरूप भी कार्यकारी नहीं होती। अन्यथा बड़े-बड़े वैद्य डॉक्टर तथा राजा-महाराजा तो कभी बीमार ही नहीं पड़ते; क्योंकि उनके पास उपचार के साधनों की क्या कमी? अतः स्पष्ट है कि होनहार के आगे किसी का भी वश नहीं चलता। ऐसा मानकर समताभाव से उस दुःख के भी ज्ञाता-दृष्टा रहना योग्य है। ऐसा करने से ही व्यक्ति अपने मरण को वस्तुतः संसार में भ्रमण करने वाले सभी जीव भूले भगवान हैं। अपने उस भगवत स्वभाव को न जानने-पहचानने रूप भूल मूल में ही हो रही है। इसी भूल का दूसरा नाम तो संसार है। जब तक यह जीव अपनी भगवत्ता को नहीं जानेगा, पहचानेगा; तब तक जन्म-मरण का अभाव नहीं हो सकता। इस दृष्टि से अपने आत्मस्वरूप को न जानना, न पहचानना कोई साधारण भूल नहीं है; क्योंकि साधारण भूल की इतनी बड़ी सजा नहीं हो सकती। (६७) जगत में जो जन्म-मरण के दुःख भोग रहे हैं, वे सब स्वयं को न जानने/पहचानने की भूल के कारण ही तो भोग रहे हैं। सभी अपने स्वभाव को भूले हुए हैं। पर यह बात संसारी प्राणियों को समझ में अभी तक नहीं आई। हम अब तक इन दुःखों के कारणों की खोज बाह्य जगत में ही करते रहे हैं, जबकि भूल अपने अंदर ही है। यदि हम अपनी यह भूल स्वीकार कर लें तो फिर हम संसार में संसरण करें ही क्यों? सौभाग्य यह है कि वह मूलभूत भूल केवल अपनी एक समय की वर्तमान पर्याय में ही हुई है, त्रिकाली आत्मद्रव्य में नहीं। भगवान आत्मतत्त्व तो सदा निर्मूल स्वभावी ही है और उस निर्मूल स्वभावी आत्मा, कारण परमात्मा का आश्रय लेते ही, उस पर दृष्टि डालते ही मिट जाती है। अतः (३०)

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