Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 21
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ (८) यदि इस संसार में पुण्यात्मा से पुण्यात्मा का जीवन भी कुशल-मंगल होता, पूर्ण सुखी होता तो यहीं मोक्ष होता, फिर मोक्ष के लिए कोई प्रयत्न ही क्यों करता? कहा भी है - जो संसार विसैं सुख होता तीर्थंकर क्यों त्यागें। काहे को शिव साधन करते संयम सों अनुरागे।। यद्यपि स्थिर जीविका के बिना जीवोद्धार की बात संभव नहीं है, आजीविका की भी मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कम से कम रोटी, कपड़ा और मकान की प्राथमिक आवश्यकताओं की समस्याओं का समाधान तो होना ही चाहिए। पर, वह हमारे हाथ में है कहाँ? वह तो अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार ही मिलती है। चींटी को कण और हाथी को मण सुबह से शाम तक अपने-अपने भाग्यानुसार मिलता ही है। इसमें आदमी की बुद्धि अधिक काम नहीं आती। अतः इस विकल्प से भी विराम ले लो। विदाई की बेलासे कुछ भी समय नहीं निकालना अच्छी बात नहीं है। एतदर्थ यह विचार करें कि जैसी होनहार होती है, वैसी ही बुद्धि उत्पन्न हो जाती है, उद्यम भी उसी दिशा की ओर होने लगता है, सहायक भी वैसे ही मिल जाते हैं। अतः आजीविका के साथ आत्मोद्धार का उपाय भी करें। (१२) संयोगों में न तो सुख है और न दुःख ही है। सांसारिक सुख-दुःख तो संयोगी भावों से होता है, संयोगों में इष्ट-अनिष्ट कल्पनाएँ करने से होता है। संयोगों में वस्तुतः सुख है ही कहाँ, वह तो सुखाभास है, दुःख का ही बदला हुआ रूप है। वास्तविक सुख का सागर तो अपना आत्मा ही है। (१३) बुढापा स्वयं भी तो अपने आप में एक बीमारी है, जिससे कोई नहीं बच सकता । जन्म-जरा (बुढ़ापा) एवं मृत्यु - ये तीन ऐसे ध्रुव सत्य हैं कि जिनसे कोई इंकार नहीं कर सकता। इनका सामना तो समय-समय पर सबको करना ही पड़ता है। (१४) जिस तरह जब सरोवर सूखता है तो सब ओर से ही सूखता है, उसी तरह जब पुण्य क्षीण होता है तो सब ओर से ही क्षीण होता है। (१५) जिससे भी हम अपने दिल का दुःख-दर्द कहेंगे, वह या तो राग-द्वेष व अज्ञानतावश हमारा ही दोष बताकर हमें और अधिक दुःखी कर देगा या फिर हमें दीन-हीन, दुःखी, मुसीबत का मारा मानकर दयादृष्टि से देखेगा। हमारी और हमारे परिवार की कमजोरियों को यहाँ-वहाँ कहकर बदनामी भी कर सकता है और हमारी कमजोरियों का गलत फायदा भी उठा सकता है। रहिमन कवि ने ठीक ही कहा है - "रहिमन निजमन की व्यथा मनहरी राखो गोय। सुनिइढले हे लोग सब, बांट न लेहे कोय॥" यद्यपि उद्योग में उद्यम की प्रमुखता है; पर उद्यम भी तो होनहार का ही अनुसरण करता है, अन्यथा आज सभी उद्यम करने वाले करोड़पति से कम नहीं होते। आज ऐसा कौन है जो बड़ा आदमी बनने का, करोड़पति बनने का उद्यम नहीं कर रहा? पर उनमें कितने करोड़पति हो गये? जब भाग्य साथ नहीं देता तो अच्छे-अच्छे बुद्धिमानों की बुद्धि भी कुछ काम नहीं करती। 'दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम' उक्ति के अनुसार सबकी आजीविका तो भाग्यानुसार पहले से ही निश्चित है। यह न केवल लोकोक्ति है, गोम्मटसार व समयसार जैसे आगम व अध्यात्म ग्रंथ भी इसका समर्थन करते हैं। अतः जीविका में ही सारी शक्ति लगा देना और जीवोद्धार को

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