Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ विदाई की बेलासे विदाई की बेला से~ (४) यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि - सामाजिक और पारिवारिक प्राणियों को अकेलापन काटने को दौड़ता है; परन्तु आत्मध्यान और तत्त्वों के चिन्तन हेतु तथा विकथाओं से बचने के लिए अब वृद्धावस्था में तो एकान्त में रहने का अभ्यास करना आवश्यक है अन्यथा धर्मध्यान नहीं हो सकेगा। भला जिनके पैर कब्र में लटके हों, जिनको यमराज का बुलावा आ गया हो, जिनके सिर के सफेद बाल मृत्यु का संदेश लेकर आ धमके हों, जिनके अंग-अंग ने जवाब दे दिया हो, जो केवल कुछ ही दिनों के मेहमान रह गये हों, परिजन-पुरजन भी जिनकी चिरविदाई की मानसिकता बना चुके हों, अपनी अन्तिम विदाई के इन महत्वपूर्ण क्षणों में भी क्या उन्हें अपने परलोक के विषय में विचार करने के बजाय इन राजनैतिक हारजीत आदि व्यर्थ की बातों के लिए, इन राग-द्वेषवर्द्धक विकथायें करने का समय है? वैसे भी सभी का यह कर्तव्य है कि वे मात्र दुनियादारी के ज्ञाता-दृष्टा रहें; क्योंकि सभी को शांत व सुखी होना है, आनंद से रहना है; पर वृद्धजनों का तो अब एकमात्र यही मुख्य कर्तव्य रह गया है कि जो भी हो रहा है, वे उसके केवल ज्ञाता-दृष्टा रहें; उसमें रुचि न लें, उनसे राग-द्वेष न करें। मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल व जिनवाणी का श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है। अनन्तानन्त जीव अनादि से निगोद में हैं, उनमें से कुछ भली होनहार वाले विरले जीव भाड़ में से उचटे चनों की भाँति निगोद से एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में आते हैं। वहाँ भी वे लम्बे काल तक पृथ्वी जल-अग्नि-वायु एवं वनस्पतिकायों में जन्म-मरण करते रहते हैं। उनमें से भी कुछ बिरले जीव ही बड़ी दुर्लभता से दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय पर्यायों में आते हैं। यहाँ तक तो ठीक, पर इसके बाद मनुष्यपर्याय, उत्तमदेश, सुसंगति श्रावककुल, सम्यग्दर्शन, संयम, रत्नत्रय की आराधना आदि तो उत्तरोत्तर और भी महादुर्लभ हैं। यदि यह अवसर चूक गये तो....." वर्तमान मानसिक और दैहिक दुःखों से घबड़ाकर बे-मौत मरने की, आत्मघात करने की भूल कभी नहीं करना चाहिए। अन्यथा अपघात करने का फल जो पुनः नरक-निगोद में जाना है, उससे कोई नहीं बचा पायेगा। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अधिकांश व्यक्ति दूसरों की घटनायें सुनते-सुनते स्वयं अपने जीवन की घटनायें सुनाने को उत्सुक ही नहीं, अपितु आतुर तक हो उठते हैं और कभी-कभी तो भावुकतावश न कहने योग्य ऐसी बातें भी कह जाते हैं जिनसे कलह, विसंवाद एवं वाद-विवाद बढ़ने की संभावना होती है। (३) भूल की पुनरावृत्ति न होने देना ही भूल का सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है। अतः भूत की भूलों को भूल जाओ, तत्त्वज्ञान के बल से वर्तमान में हो रहे भावों को संभालो, भविष्य स्वयं संभल जायेगा।" वस्तुतः हर किसी के सामने अपने दिल का दर्द या मन की व्यथा कहने से कोई लाभ नहीं है। इस मशीनी युग में किसी को न तो किसी के कष्ट सुनने की फुरसत है और न उन्हें सहयोग करने व सहानुभूति प्रदर्शित करने को ही समय है। अतः किसी से कुछ कहना, भैंस के आगे बीन बजाना है। (२०)

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