Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ (५८) जिनमें त्रस जीवों की और बहुस्थावर जीवों की हिंसा हो - ऐसा भोजन तो अभक्ष्य होने से खाने योग्य ही नहीं है; क्योंकि हिंसाजनक अभक्ष्य भोजन अहिंसक समाज कैसे खा सकता है। (५९) अभक्ष्यपना केवल अपने स्वास्थ्य की हानि-लाभ से ही सम्बन्ध नहीं रखते, वरन इनका सम्बन्ध अपने आत्मा की क्रूरता और परजीवों के घात से भी है। इन अभक्ष्यों का पाँच भागों में वर्गीकरण किया गया है। १. त्रसघात २. बहुघात ३. नशाकारक ४. अनिष्ट और ५. अनुपसेव्य । (६०) सभी प्रकार का मांसाहार तो चलते-फिरते त्रसजीवों के घात से बनता है, अतः वह तो त्रसघात नामक अभक्ष्य है ही, मुर्गी के सभी प्रकार के अंडों से बने खाद्य-पदार्थ भी मांसाहार ही है। जिन अंडों से मुर्गी के चूजे (बच्चे) पैदा नहीं होते उन अंडों में भी सूक्ष्म त्रसजीव निरंतर पैदा होते रहते हैं, अतः वे भी मांसाहार ही है। उन्हें शाकाहारी कहकर नहीं खाया जा सकता। संस्कार से अब आप ही सोच लीजिए, मधु (शहद) भक्ष्य या अभक्ष्य? हमारे विचार से तो शहद खाना तो दूर, छूने लायक भी नहीं है; क्योंकि वह मलमूत्र और थूक-लार का मधुर मिश्रण है। (६२) ___पुण्योदय से प्राप्त संयोगों की अनुकूलता में जो व्यक्ति जितना हर्षित होता है, प्रसन्न होता है; पापोदय जनित प्रतिकूलताओं में उसे उतना ही अधिक दुःख होता है, खेद होता है। वस्तुतः अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों में तत्त्वज्ञान के बल से समभाव रखना साम्यभाव से तटस्थ रहना ही सुखी होने का सच्चा उपाय है। शराब और शहद में भी अनंत जीव निरंतर पैदा होते रहते हैं। शराब तो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने से अनिष्ट भी है, शहद भले अनिष्ट न हो, पर उसमें न केवल फूलों का रस ही होता है; बल्कि फूलों के रस के साथ असंख्य मधुमक्खियों के अंडे भी मिल जाते हैं। मधुमक्खियों की लार एवं मल-मूत्र भी मिल जाता है; क्योंकि उनके छत्ते में न तो अलग से कोई युरिनल (पेशाबघर) होता है और न संडास । तथा फूलों का रस लाने के लिए उनके पास केवल मुँह ही बर्तन के रूप में होता है, जिसे न धोनेमांजने की व्यवस्था है, न दातुन-कुल्ला करने का कोई टूथपेस्ट और मंजन । वे मक्खियाँ उसी मुँह से गंदगी भी खाती है और उसी गंदे मुँह में फूलों का रस भर कर लाती है। एकत्व निश्चय को प्राप्त भगवान आत्मा ही लोक में सब से सुन्दर है। जो एक बार उस शुद्धात्मा का दर्शन कर लेता है, उसे फिर संसार में कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जैसे - जो एक बार दाख चख लेता है फिर उसे महुआ नहीं भाता। जिसे अमृत तुल्य मीठा पानी मिल जाय, फिर भला वह समुद्र का खारा पानी क्यों पियेगा? जिनके घर देवांगना तुल्य गृहणियाँ हों, वे वेश्याओं के यहाँ जाकर अपना धन क्यों लुटायेंगे? __पर अनादिकाल से इन कामी-भोगी जीवों ने अपनी विवेक की आँख से कभी भगवान आत्मा को देखा ही नहीं है, इसीकारण ये विषयों में फँसे हैं। एक बार यदि यह भेदज्ञान की आँख से उस भगवान आत्मा को देख लेता तो संसार के भोगों से स्वतः विरक्त हो जाता और कर्मबंधन से मुक्त हुए बिना नहीं रहता। (६४) ऐसा अखण्ड पुण्य तो बिरलों के ही होता है, जिसके फल में सब प्रकार की अनुकूलतायें एकसाथ मिलती हैं। हम जैसे अधिकांश लोगों का तो दाँत-चनों जैसा खेल ही होता है। जब दाँत होते हैं तब चबाने को चने

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