Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 15
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ संस्कार से तक नसीब नहीं होते और जब पुण्य योग से सब कुछ भोग सामग्री उपलब्ध हो जाती है, तब तक आँतें इतनी कमजोर हो जाती हैं कि मूंग की दाल का पानी भी नहीं पचता। (६५) कोई कितना भी धन सम्पन्न क्यों न हो? पर वह तृप्त नहीं होता। भलाईंधन अग्नि को कभी तृप्त कर सका है? जिसतरह ईंधन पाकर अग्नि और अधिक भभक उठती है, इसीतरह आशा रूपी अग्नि धनादिक भोग सामग्री पाकर तृप्त होने के बजाय और अधिक भभकती है। कहा भी है - आशा गर्तः प्रति प्राणी, यस्मिन् विश्व अणूपमम् । कश्मिद् कियत आयति, वृथैव विषयेषणा ।। अन्याय से पराया धन हड़पना तो उस बरसाती नदी-नालों में आए गंदे-मटमैले पानी की तरह होता है जो इधर से आया उधर बह गया, न वह कभी किसी के पीने के काम आता है और न स्थायी रूप से टिकता ही है। प्यास बुझाने वाला पीने का शुद्ध पानी जो शुद्ध निर्मल जलस्रोतों से निरन्तर आता है, वही स्थायी होता है। (६६) परम्परागत प्रत्येक पुरानी बात बुरी ही होती हो, गलत ही हो, यह बात भी नहीं है और प्रत्येक नवीन बात सही ही हो, भली ही हो यह भी कोई नियम नहीं है। वस्तुतः अति ही सर्वत्र बुरी होती है। इसलिए किसी मनीषी ने ठीक ही कहा है कि 'अति सर्वत्र वर्जयते।' (६७) शादी-विवाह के बहुत से रीति-रिवाज और परम्परायें बहुत अच्छे होते हैं, हमें उन्हें तोड़ना भी नहीं चाहिए। पर अविवेक के कारण आज दोनों पक्षों में हो रही अति से अनेक अच्छे रीति-रिवाज और परम्परायें भी बदनाम हो गई हैं। उनमें सबसे अधिक बदनामी दहेज को मिली है। वस्तुतः दहेज का परम्परागत रिवाज बुरा नहीं था; बल्कि यह एक अच्छी परम्परा थी। यह कभी किसी बुद्धिमान व्यक्ति की सूझ-बुझ का सुखद परिणाम रहा होगा। पर आज तो इसका स्वरूप ही बदल गया है, विकृत हो गया है। यह पहले जितनी सुखद थी, आज उससे कहीं बहुत अधिक दुःखद बन गई है। उस दुःखद स्थिति के मूल कारणों को न देखकर कुछ लोग दहेज जैसी पवित्र परम्परा का ही विरोध करने लगे हैं। दहेज को ही कोसने लगे हैं। ऐसे लोग दहेज का सही स्वरूप, अर्थ व उसका मूल प्रयोजन नहीं जानते। दहेज वस्तुतः कन्या के माता-पिता, भाई-भाभी, बंधु-बान्धव, कुटुम्ब-परिवार और रिश्तेदारों द्वारा अपनी-अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार प्रेमपूर्वक सहर्ष दिया गया वह उपहार है, जिसे प्रदान कर वे प्रसन्न होते हैं, कृतार्थ होते हैं। इसमें परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना भी निहित होती है। इस परम्परा को प्रचलित करने के पीछे एक पवित्र उद्देश्य यह भी रहा होगा कि जिन साधन विहीन, अभावग्रस्त लड़के-लड़कियों को परिवार और समाज के लोग वर-वधू के रूप में गृहस्थ जीवन में प्रवेश कराते हैं, उनकी प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करने का उत्तरदायित्व भी तो उनके परिवार व समाज का है। अतः सभी घर-कुटुम्ब के लोग, रिश्तेदार, पंच और समाज के लोग मिलकर नेग-दस्तूरों के रूप में दैनिक आवश्यकता की वस्तुयें देकर उन वर-कन्या का एक नया घर बसाते हैं। उसमें जितनी जिम्मेदारी कन्या पक्ष की है, उतनी ही वरपक्ष की भी है। वस्तुतः देखा जाए तो दहेज कोई समस्या नहीं, समस्या है वर-पक्ष के द्वारा दहेज की माँग करना, दहेज का सौदा करना, दहेज देने के लिए कन्यापक्ष को येन-केन-प्रकारेण बाध्य करना । इसमें वर पक्ष वाला बदनाम हो गया और कन्या पक्ष वाला दया का पात्र दीन बन गया।

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