Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 17
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ संस्कार से (७३) किसी भी मौलिक कामना से की गई पंच परमेष्ठी की उपासना तीव्रकषाय होने से पापभावरूप ही है। फिर भी दृढ़सूर्य चोर को जो स्वर्ग की प्राप्ति होने का उल्लेख पुराणों में है उस सन्दर्भ में विचारणीय यह है कि - 'क्या ऐसा नहीं हो सकता कि णमोकार मंत्र के उच्चारण करने से दृढ़ सूर्य चोर का ध्यान प्यास जनित पीड़ा के दारुण दुःख से हटकर पंच परमेष्ठी के स्वरूप पर चला गया हो और भली होनहार के कारण उसे अपने चौरकृत्य पर पश्चाताप के साथ णमोकार मंत्र की आराधना के फलस्वरूप विशुद्ध परिणाम हो गये हों, जिनका फल साक्षात् स्वर्ग ही है। (७४) क्या दिगम्बर और क्या श्वेताम्बर, सम्पूर्ण जैन समाज एकमत से णमोकार महामंत्र को अपना आदर्श मंत्र मानती है और सभी मंत्रों में इसको सर्वश्रेष्ठ महामंत्र निरूपित करती है, क्योंकि इस महामंत्र में उन अरहंत सिद्ध आदि वीतरागी पंच-परमेष्ठी को नमन किया गया है, जो सबको समान रूप से मान्य एवं सभी को परमपूज्य और आराध्य हैं। (७५) देखो, सम्पूर्ण जिनागम को चार शैलियों में प्रतिपादित किया गया है, जिन्हें चार अनुयोग कहा जाता है। वे हैं द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और प्रथमानुयोग । सम्पूर्ण पौराणिक कथानक प्रथमानुयोग की शैली में लिखे गये हैं। प्रथमानुयोग में केवल प्रयोजन की मुख्यता से कथन होता है। इस प्रकरण में केवल इतना प्रयोजन है कि जो लौकिक कामनाओं की पूर्ति के लिए अन्यमत-मतान्तरों द्वारा पीर-पैगम्बर या रागीद्वेषी व अल्पज्ञ देवीदेवताओं की शरण में चले जाते हैं। वे वहाँ जाकर गृहीत मिथ्यात्व में न पड़ें, णमोकार मंत्र द्वारा पंच परमेष्ठी का स्वरूप पहचान कर वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा व उन्हीं के पथानुगामी साधुओं की शरण में आएँ, ताकि वे गृहीत मिथ्यात्व के महापाप से बच सकें और सच्ची बात समझने के निमित्तों से दूर न हो जावें। (७६) ऊपर से परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले कथन भी वस्तुतः परस्पर विरोधी नहीं होते; क्योंकि दोनों कथनों के प्रयोजन बिल्कुल पृथक-पृथक होते हैं। (७७) यदि कोई निकट भव्यजीव अपनी अज्ञानमय पूर्व पर्याय में पापाचरण या पापभाव करता है तो उसे उसका फल भोगना ही पड़ता है। चाहे बाद में वह कितना ही बड़ा धर्मात्मा क्यों न हो जावे? अतः जिसे संकटों में पड़ना स्वीकार न हो, जो दारुण दुःखों से बचा रहना चाहता हो; उसे पापाचरण से बचना ही चाहिए। (७८) यदि वस्तुतः कारण-कार्य की मीमांसा की जाय तब तो प्रत्येक कार्य के सम्पन्न होने में अनेक कारण विद्यमान रहते हैं; श्रेय केवल बाह्य निमित्त कारण को ही दिया जाता है, क्योंकि निमित्त रूप से भी किसी के द्वारा किये गये उपकार को सज्जन भूलते नहीं हैं। कहा भी है - "नहिं कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति।" (७९) णमोकार मंत्र का सुनना तो मात्र निमित्त कारण था। साथ में उन जीवों की होनहार भी वैसी ही थी तथा उनके परिणामों की विशुद्धि (कषाय की मंदता) भी ऐसी हो गई थी कि उन परिणामों से देवगति का बन्ध हो, अन्य नरकादि गति का नहीं एवं काललब्धि भी वैसी ही आ गई थी। इसकारण उसके परिणाम भी उसी जाति के हुए, जिनसे सद्गति होती है। साथ में निमित्त रूप में णमोकार मंत्र भी कान में पड़ गया था और उस पर विचार करके अरहंतादि के प्रति भक्ति श्रद्धा भी हो गई थी। इसप्रकार जब सभी कारण मिलते हैं काम तो तब होता है, परन्तु कथन करने में अधिकतर निमित्त की ही मुख्यता रहती है। अपेक्षाएँ भिन्न-भिन्न

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