Book Title: Jina Khoja Tin Paiya
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ संस्कार से (६९) बुद्धिमान व्यक्ति वह है, जो इसका उपयोग व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए एक चतुर वैद्य की तरह इस प्रकार करते है कि किसको/ कब/कितनी मात्रा में प्रशंसा की खुराक दी जाय? जो उसके सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास में सहायक हो सके। (७०) स्वाध्याय तो कहते ही उसे हैं जिसमें विचार मंथन हो। जिसतरह दही को विधिवत बिलोए बिना मक्खन हाथ नहीं आता, उसीप्रकार वस्तु स्वरूप का स्यावाद शैली से मन्थन किए बिना तत्त्व हाथ नहीं आता। जिन खोजा तिन पाइयाँ अतः विरोध दहेज का नहीं, दहेज प्रथा का होना चाहिए; क्योंकि दहेज देने एवं लेने को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाना ठीक नहीं है। ____ कुछ लोग अधिक दहेज मिलने में अपनी इज्जत समझते हैं तो कुछ बिल्कुल भी दहेज न लेने में, स्वीकार न करने में अपनी इज्जत समझते हैं, पर वे दोनों ही प्रकार के लोग भूल में हैं, वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ हैं। (६८) प्रशंसा और पुरस्कार एक ऐसी संजीवनी है, जो अनजाने ही अन्तरात्मा में नवीन चेतना का संचार कर देती है। यह एक ऐसा टॉनिक है, जिसके बिना व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास ही अवरुद्ध हो जाता है। वस्तुतः यह मानव मात्र की वह मानसिक खुराक है, जिसके बिना मानव में काम करने का उत्साह उत्पन्न ही नहीं होता। जिस तरह मनुष्य का शरीर संतुलित भोजन के अभाव में रोगी हो जाता है, कमजोर हो जाता है; उसी तरह संतुलित प्रोत्साहन प्रशंसा की कमी के कारण मानव की कार्य क्षमता कम हो जाती है। प्रशंसा व प्रोत्साहन एक ऐसी रामबाण अचूक औषधि है, जो हताश, हतोत्साहित व निरूत्साहित मानवों के मनों में आशा, उमंग व उत्साह भर देती है। प्रशंसा की खुराक देकर आप एक भूखे-प्यासे व्यक्ति से भी मनचाहा कठिन से कठिन और छोटे से छोटा काम करा सकते हैं। दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो प्रशंसा पाने और यश खाने की आदत एक बड़ी भारी मानवीय दुर्बलता भी है, जिसका चतुर चालाक व वाकपटु व्यक्ति दुरुपयोग भी कर लेते हैं। स्वार्थी लोग इस मानवीय कमजोरी को पहचान कर झूठ-मूठ प्रशंसा करके अपने स्वार्थ सिद्ध करने के प्रयास भी करते हैं। अतः यश की भूख और प्रशंसा की प्यास बुझाते समय प्रशंसक के हृदय की पवित्रता की पहचान और तदनुसार अपनी योग्यता का आकलन एवं आत्म-निरीक्षण तो कर ही लेना चाहिए। यह कोई नियम तो है नहीं कि जिन-जिनको बाह्य में दारुण दुःख होता दिखाई दे, उन सबके परिणाम भी संक्लेश रूप ही हों, विशुद्ध भी तो हो सकते हैं। सम्यग्दृष्टि नारकी जीवों को ही देखो न? नरकों में बाह्य संयोगों की कैसी प्रतिकूलता है? निरन्तर अनन्त दुःख, एकक्षण को भी चैन नहीं; फिर भी सम्यग्दृष्टि जीव समता रस का ही पान किया करते हैं। कहा भी है - चिन्मूरत दृग धारिन की मोहि, रीति लगत कछु अटापटी। बाहर नारकिकृत दुःख भोगें, अन्तर समरस गटागटी।। इस प्रकार दारुण दुःख में भी विशुद्ध परिणाम रह सकते हैं। इसका दूसरा ज्वलन्त प्रमाण हमारे सामने पाँच पाण्डवों का है। यदि बाहर के दारुण दुःख देखकर उनके अन्तरंग परिणामों को संक्लेश रूप ठहराया जाएगा, तब तो फिर उनमें से तीन को मोक्ष प्राप्त होना और दो का सर्वार्थसिद्धि में जाने की बात ही विवाद में पड़ जायेगी, जो निर्विवाद रूप से सर्वज्ञदेव द्वारा कथित आगम सिद्ध तथ्य है। (७२) देवपर्याय की प्राप्ति भी बिना विशुद्ध परिणामों के संभव नहीं है, अतः दृढ़सूर्य चोर के परिणाम णमोकार मंत्र का निमित्त पाकर अपनी तत्समय की योग्यता से नियम से विशुद्ध हुए थे, अन्यथा उसे देवगति में जाना कैसे संभव है?

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