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'पढमे 'सिक्खावए निदे।।27।। 'प्रथम शिक्षा व्रत में लगे इन अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।27।।
दसमें व्रत (दूसरा शिक्षा व्रत देशावगासिक) के अतिचार "आणवणे पेसवणे, नियमित भूमि के बाहर की कोई वस्तु मंगवाने से बाहर भेजने से सिद्दे "रुवे अ पुग्गल-खेवे; शब्द के द्वारा उपस्थिति बताने में रुप दिखाने से और कंकरादि 'देसावगासिअम्मि, फेंककर अपने कार्य के लिए किसी को बुलाने से 'देशावगासिक नामक 'बीए 'सिक्खावए 'निंदे।।28।। 'दूसरे 'शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की 'मैं निंदा करता हूँ।।28।।
ग्यारहवें व्रत (तीसरा शिक्षा व्रत पौषध) के अतिचार 'संथारू 'च्चारविहि, 'संथारा और स्थंडिल, मात्रा आदि की भूमि का विधि पूर्वक
पडिलेहन, प्रमार्जन नहीं करने से ‘पमाय तह चेव भोअणाभोए, प्रमाद करने से तथा भोजन की चिन्ता करने से पोसह विहि-विवरीए, और पौषध की विधि में विपरीत आचरण करने से 'तइए 'सिक्खावए निदे।।29।। 'तीसरे शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की मैं निंदा करता हूँ।।29।।
बारहवें व्रत (चौथा शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग) के अतिचार सच्चित्ते निक्खिवणे, देने योग्य वस्तु को सचित्त पर रखने से "पिहिणे ववएस मच्छरे चेव; 'अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढंक देने से परायी वस्तु को
अपनी या अपनी वस्तु को परायी कहने से ईर्ष्यादि कषाय पूर्वक
आहारादि दान देने से और कालाइक्कम-दाणे, गोचरी का समय बीत जाने पर गोचरी के लिए आमंत्रण देने से 'चउत्थे 'सिक्खावए 'निंदे।।30।। 'चौथे 'शिक्षाव्रत में लगे इन अतिचारों की 'मैं निंदा करता हूँ।।30।। 'सुहिएसु अ 'दुहिएसु अ, 'संयमगुण और वस्त्रादि उपधि संपन्न सुविहित मुनिवरों की तथा
व्याधि पीड़ित, तपस्या से खिन्न और वस्त्र, पात्रादि उपधि से रहित दुःखी सुविहित साधुओं की