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1. सद्भूत स्थापना : लकड़ी, पुस्तक, चित्र में गुरु के जैसा आकार बनाकर उसमें गुरु की
स्थापना करना ।
2. असद्भूत स्थापना : अक्ष (अरिया), वराटक (कोड़ा) तथा ज्ञान-दर्शन- चारित्र के उपकरण आदि में गुरु का आकार नहीं होने पर भी उसमें गुरु की स्थापना करना ।
पुनः यह स्थापना दो प्रकार की होती है।
1. इत्वर स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को मात्र सामायिक आदि काल तक के लिए नवकारपंचिंदिय से स्थापना करना ।
2. यावत्कथित स्थापना : उपरोक्त दोनों स्थापना को गुरु के 36 गुणों की प्रतिष्ठा विधि पूर्वक स्थापना करना। इस प्रकार की विधि से स्थापित करने के बाद क्रिया करते समय स्थापनाचार्यजी के सामने नवकार - पंचिंदिय से पुनः स्थापना करने की जरुरत नहीं रहती है।
प्र. गुरु के अभाव में उनकी स्थापना करने की क्या जरुरत है ?
उ. गुरु के अभाव में उनकी स्थापना करने से गुरु साक्षात् हमें आदेश दे रहे हो, ऐसे भाव पैदा होते हैं एवं उनकी निश्रा में धर्मानुष्ठान करने से सार्थक होता है। गुरु के अभाव में किया गया अनुष्ठान फलदायक नहीं बनता। जैसे परमात्मा के अभाव में उनके बिम्ब की स्थापना कर सेवा पूजा का लाभ ते हैं वैसे ही गुरु की स्थापना करने पर हम वंदनादि का लाभ ले सकते हैं।
प्र. गुरु से कितनी दूरी पर रहना चाहिए ?
उ. श्रावक एवं साधु को गुरु से 31/1⁄2 हाथ दूर रहना चाहिए।
श्रावक एवं साधु को साध्वीजी से 13 हाथ दूर रहना चाहिए ।
श्राविका एवं साध्वीजी को साधु भगवंत से 13 हाथ दूर रहना चाहिए । श्राविका एवं साध्वीजी को साध्वी (गुरु) से 31/1⁄2 हाथ दूर रहना चाहिए। प्र. गुरु भगवंत की 33 आशातना में से कुछ आशातना बताइये ?
उ. गुरु भगवंत के आगे, पास में या पीछे अत्यंत नज़दीक खड़ा रहना, बैठना या चलना, गुरु भगवंत को गोचरी नहीं बताना, उनके बुलाने पर उठकर नहीं जाना, उनके आसन को पैर लगाना, उनकी भूल निकालना, गुरु भगवंत को या स्थापना (यानि - फोटो आदि) को पैर लगाना, थूक लगाना, उनकी आज्ञा का भंग करना, स्थापनाचार्यजी को गिराना, तोड़ना आदि।
प्र. गुरुवंदन करते समय हृदय कैसा होना चाहिए?
उ. गुरुवंदन करते समय गुरु भगवंत के महान गुणों को नज़र में रखते हुए, उनके प्रति हृदय में अहोभाव