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निकालकर देखा। लेकिन उसमें उनका नाम कहीं नहीं था। सोमचन्द सेठ ने कहा, “सेठजी ! मेरे बहीखाते में आपका नाम ही नहीं है।" सदाचंद सेठ “यह कैसे हो सकता है। आप याद कीजिए, एक लाख की रकम कोई मामूली बात नहीं है। यह रुपये आपके ही हैं।” सोमचंद सेठ ने वह रुपये स्वीकार नहीं किये। सदाचंद सेठ भी उस पराये धन को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच काफी समय तक आनाकानी चली। अंत में दोनों ने मिलकर एक रास्ता निकाला कि इन पैसों से हम परमात्मा का जिनालय बना दें। प्रभु का भक्त इसके सिवाय और करें भी क्या? और दोनों ने मिलकर गिरिराज पर भव्य जिनालय बनवाया जो आज भी सदा-सोमा की ट्रॅक के नाम से उनकी यश गाथा गा रहा है।
दो बूंद आँसू की कथा देखो। जिस व्यक्ति को देखा नहीं मात्र जिसका नाम सुना था ऐसे सोमचंद सेठ को सदाचंद सेठ ने रोते हुए एक पत्र लिखा और दो परोक्ष आँसू ने यह कार्य किया। ऐसी अपूर्व थी हमारे पूर्वजों की साधर्मिक भक्ति।
5. पुणिया श्रावक पुणिया श्रावक पहले पूनमचंद सेठ के नाम से प्रख्यात थे। उनके घर में लक्ष्मी का साक्षात् वास था। दुनिया भर के सारे सुख उनके चरणों में थे। एक दिन उन्होंने प्रभु वीर की देशना सुनी और धन की मूर्छा तथा उसके परिग्रह से होने वाले भयंकर परिणामों को जाना।
धन यह सर्व अनर्थों की खान है। इसलिए धन के विषय में कुछ तो मर्यादा रखनी ही चाहिए। ऐसा जानकर पूनमचंद सेठ ने स्वयं के पास रही हुई अपार संपत्ति को सातों क्षेत्र में खर्च कर दी। एवं स्वयं ने अपने हाथों से काती हुई रुई को बेचने का सामान्य धंधा करना शुरु किया तथा गाँव के अंत में एक झोपड़ी में रहने चले गए। उन्होंने परिग्रह का परिमाण कर लिया था तथा उसी में संतोष मानने लगे। अब वे रोज इतना ही कमाते थे जिसमें से पति-पत्नी के एक समय के भोजन की व्यवस्था हो जाये।
एक दिन प्रभु वीर के पास उन्होंने साधर्मिक भक्ति की महिमा सुनी। तब उनके हृदय में नित्य साधर्मिक भक्ति के भाव जागृत हुए। घर आकर उन्होंने यह बात अपनी पत्नी से कही। पत्नी को भी यह सत्कार्य अँच गया। परंतु अब तकलीफ यह खड़ी हो गई कि साधर्मिक भक्ति करने के लिए पैसे कहाँ से लाए ? यदि वह चाहते तो ज्यादा धन कमा सकते थे। परन्तु उन्हें ऐसा रास्ता चाहिए था जिसमें ज्यादा कमाना भी न पड़े तथा साधर्मिक भक्ति भी हो जाएँ। यदि अंतर हृदय में सच्ची भावना हो तो कोई भी कार्य कठिन नहीं होता। आखिर रास्ता निकल गया। पुणिया को कर्मपत्नी नहीं परंतु धर्मपत्नी मिली थी। अतः दोनों ने मिलकर एकांतर से उपवास करने का निश्चय किया और प्रतिदिन एक साधर्मिक को भोजन