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एवं पाँचवे समय मोड़ लेकर विदिशा के उत्पत्ति स्थान में पहुँचता है। इसके बीच जीव 3 समय के लिए अणाहारी रहता है।
इस प्रकार जीव विग्रहगति में बीच के समयों में अणाहारी रहता है। प्रथम मरण स्थान से आहार लेकर निकलता है एवं अंतिम समय जहाँ उत्पन्न होता है वहाँ आहार कर लेता है। इसलिए बीच के समय ही अणाहारी रहता है। पहले समय तो कोई भी जीव ऋजुगति से ही जाता है, दूसरे समय से विग्रहगति होती है।
ऋजुगति वाले जीव का परभव का आयुष्य प्रथम समय से ही शुरु हो जाता है। जबकि विग्रहगति वाले जीव का परभव का आयुष्य दूसरे समय से शुरु होता है।
ऐसी विग्रहगति में जीव अनंतबार अणाहारी बना है। फिर भी जीव का कल्याण नहीं हुआ। इसलिए हमें भगवान के पास अणाहारी पद ऐसा माँगना चाहिए कि जो आने के बाद जाएँ नहीं। अर्थात् शाश्वत पद (मोक्ष) माँगना चाहिए।
का स्नात्र पूजा भावार्थ र सरस शांति सुधारस.... शांतिनाथ भगवान को भावभरा नमन कर जिस प्रकार देवों ने मेरुपर्वत पर भगवान के स्नात्र महोत्सव के समय में कुसुमांजलि की थी। यहाँ उसी कुसुमांजलि का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।
यह क्रम आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, वीरप्रभु, चउवीस जिन, वीस विहरमान भगवान एवं सर्व जिनेश्वरों की देवों के द्वारा की गई कुसुमांजलि का प्राकृत दोहे से स्मरण करते हुए दाल के द्वारा उस कुसुमांजलि का यहाँ के भक्तों द्वारा अनुकरण किया जा रहा है।
___ तत्पश्चात् भगवान को प्रदक्षिणा पूर्वक चैत्यवंदन कर परमात्मा के जन्म कल्याणक की सहेतुक विधि शुरु होती है।
सयल जिनेश्वर पाय नमी.... सर्वप्रथम प्रभु अनादि मिथ्यात्व को दूर कर सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं । उसके बाद संयम को ग्रहण कर सर्व जीवों के कल्याण की उत्कृष्ट भावना द्वारा तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करते हैं। वहाँ से बीच में एक देव का भव कर, वहाँ से च्यव कर पन्द्रह कर्मभूमि के 170 विजय में से किसी भी विजय में राजा की पटराणी की कुक्षि में मति, श्रुत एवं अवधि इन तीन ज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। यहाँ पर उपमा दी है - जैसे हंस मानसरोवर में ही रहता है वैसे ही प्रभु पटराणी की कुक्षि में ही आते हैं। भगवान के प्रभाव से प्रभु की माता 14 महान स्वप्न देखती है। वे इस प्रकार है - 1. हाथी, 2. वृषभ, 3. केसरी सिंह 4. लक्ष्मीदेवी, 5. रंगबिरंगी फूलों की दो माला,