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'चिर 'संचिअ पाव 'पणासणीइ, 'बहुत काल से 'इकट्ठे किए हुए 'पापों को नाश करने वाली और
'भव 'सय सहस्स ' महणीए,
'लाखों "भवों के भ्रमण को 'मिटाने वाली ऐसी
"चडवीस 'जिण "विणिग्गय,
"चौबीस 'जिनेश्वरों के मुख से "निकली हुई
"कहाइ "वोलंतु "मे "दिअहा | | 46 || "कथा के द्वारा "मेरा " दिन "व्यतीत हो । । 46 || 'अरिहंत भगवान, 'सिद्ध भगवान, साधुमहाराज,
'मम 'मंगल 'मरिहंता,
'सिद्धा 'साहू 'सुअं च 'धम्मो अ;
'सम्म तस्स य' सुद्ध (सम्मदिट्ठी)
श्रुतधर्म और 'संयमधर्म ये सब मेरे लिए 'मंगल रुप हो और मेरे 'सम्यक्त्व की शुद्धि करें (सम्यग्दृष्टि देव) एवं मुझे "समाधि तथा "बोधि (जिनधर्म ) " प्रदान करें ||47|| 'निषेध किये हुए हिंसाजनक पापकार्यों को 'करने से
"दिंतु "समाहिं च "बोहिं च ||47||
'पडिसिद्धाणं 'करणे,
'किच्चाणमकरणे अ 'पडिक्कमणं । 'सामायिक, पूजादि करने योग्य कार्यों को नहीं करने से "जिनेन्द्र भाषित तत्त्वों में अविश्वास रखने से और
'असद्दहणे अ तहा, 'विवरीअ 'परुवणाए अ । । 48 । । "जिनागमों से विरुद्ध प्ररूपणा करने से जो पाप दोष लगा हो उसका 'प्रतिक्रमण किया जाता है || 48 ||
'खामि 'सव्व' जीवे,
'सर्व 'जीवों को मैं 'खमाता हूँ,
'सव्वे 'जीवा 'खमंतु 'मे
'सर्व 'जीव 'मुझे 'क्षमा करें।
"मित्ती मे सव्वभूएसु,
समस्त जीवों के साथ 'मेरी "मैत्री है (सभी जीव मेरे मित्र है )
"वेरं "मज्झ "न "केणइ | | 49 ।। " किसी जीव के साथ "मेरा "वैरभाव (दुश्मनावट ) " नहीं है। 49 || 'इस प्रकार मैं' आलोचना करके
'एवमहं 'आलोइअ
'निंदिअ 'गरहिअ 'दुगंछिअं सम्मं । निंदा करके, गर्दा करके और 'पापों से
घृणा
'तिविहेण 'पडिक्कं तो ‘मन,वचन,काया रुप पापों से निवृत्त होकर, "वंदामि 'जिणे "चउव्वीसं | |50|| 'चौबीसों तीर्थंकरों को " वंदन करता हूँ | |50||
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करके