________________
समीक्षा पृ. 28 में व्याकरणाचार्य जी यह भी स्वीकार कर लेते हैं कि -"अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्याय शक्ति विशिष्ट नित्य उपादान शक्तिरूप द्रव्यशक्ति कार्योत्पत्ति में साधक होने से अनित्य उपादानशक्तिरूप पर्याय शक्ति का भी कार्यकाल की योग्यता के रूप में कार्योत्पत्तिकी साधक माननी चाहिये ।"
- .उनके इस कथन से ऐसा लगता है कि व्याकरणाचार्य जी अपने विचारों पर स्थिर नहीं हैं। उन्होंने जो अकेली नित्य द्रव्य शक्ति को उपादान कहा है वह तो आगम में कही दृष्टिगोचर होता ही नहीं, क्योंकि उपादान उपादेयरूप तभी बन सकता है जब उसे अनित्य द्रव्यशक्ति का (पर्याय) स्वीकार किया जाय और ऐसा स्वीकार करने पर नित्य द्रव्यशक्ति का उपादेय में अन्वय भी बन जाता है और पर्यायशक्तिरूप उपदान का उपादेयरूप परिणमना भी बन जाता है। साथ ही व्याकरणाचार्य जी की इस मान्यता का भी निरसन हो जाता है कि कार्य आगे-पीछे कभी भी किया जा सकता है।
अव एक वात विचार के लिये यह रह गई कि कुछ कार्य व्याकरणाचार्य जी ऐसे भी मानते हैं जो निमित्तों की अपेक्षा के बिना केवल उपादान के अपने बल पर ही उत्पन्न हुआ करते हैं और जिन्हें वहां स्वप्रत्यय नाम दिया गया है।
सम्भवतः उन्होंने ये विचार सर्वार्थसिद्धि अ.५ सू. ७ के वचन के आधार पर ही बनाया है । ऐसा विचार बनाते समग उन्हें आचार्य समन्तभद्र का यह वचन भी ख्याल में नहीं रहा कि "कार्यों में बाह्य और आभ्यंतर उपाधि की समग्रता होती है ऐसा 5 व्यगत स्वभाव है" यथा'वाह्य तरोपाधि समग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत स्वभावः ।' साथ ही उन्होंने साथसिद्धि के पूरे वचन को दृष्टिपथ में न लेकर यह मत बनाया है। इसलिये यहां हम सर्वार्थसिद्धि के उक्त वचन को उद्धत कर देना चाहते हैं
स्वनिमित्तस्तावदनन्तानामगुरुलघुगुणानामागमप्रामाण्यादभ्युपगम्यमग्नानांषट्स्थानपतितया वृद्ध या हान्या च प्रवर्तमानानां स्वभावादेषामुत्पादो व्ययश्च । परप्रत्ययोऽपि अश्वादिगतिस्थित्यवगा हनहेतुत्वात् क्षणे-क्षरणे तेषां भेदात्तद्धतुत्वमपि भिन्नमिति परद्रव्यापेक्षउत्पादो विनाशश्च व्यवह्नियेत।"
"स्वनिमित्तक यथा--प्रत्येक द्रव्य में आगम प्रमाण से अनन्त अगुरुलघुत्व गुण (अविभागप्रतिच्छेद) स्वीकार किये गये हैं जिनका छह स्थान पतित वृद्धि और हानि के द्वारा वर्तन होता रहता है, अतः इनका उत्पाद और व्यय स्वभाव से (परनिरपेक्षरूप से) होता है। इसीप्रकार परप्रत्ययरूप भी उत्पाद और व्यय कहा जाता है । यथा - ये धर्मादिक द्रव्य क्रम मे अश्वादि की गति, स्थिति और अवगाहन में निमित्त है। चूंकि इन गति आदि में भण-क्षण में अन्तर पड़ता है, इसीलिये इनके कारण भी भिन्न-भिन्न होने चाहिये, इसप्रकार इन धर्मादिक द्रव्यों पर परप्रत्ययं की अपेक्षा उत्पाद और व्यय का व्यवहार किया जाता है।"
इस कथन से हम जानते हैं कि लोक में ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसमें उभय निमित्तों को न स्वीकार किया गया हो।