Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 202
________________ १६४. उनमें निमित्त मात्र हैं । वस्तुतः जिस द्रव्य के साथ अन्य जिस द्रव्य का कालिक श्रविनाभाव सम्बन्ध बनता है, उसके आधार पर ही निमित्तनैमित्तिक रूप से कार्य कारण भाव का कथन किया जाता है । जिनागम में भी इसी प्राधार पर कथन चलता है। वस्तुतः देखा जाय तो व्यवहार कथन मात्र उपचरित ठहरता है और परमार्थ कथन यथार्थ ठहरता है । श्रागे स. पू. २१८ में स्पष्ट करने के अभिप्रायः से समीक्षक ने जो दो विकल्प लिखे हैं, वे दोनों ही समाधानकर्ता को मान्य नहीं हैं, क्योंकि हमने उन विकल्पों में से किसी एक का भी उल्लेख नहीं किया है । वह अपनी मान्यताओं को हमारी मान्यता न बनावें, यह हमारा उससे निवेदन है । समीक्षक द्वारा लिखा मान्यता को हमारी श्रागे सर्वार्थसिद्धि . १ सू. १ का उद्धरण उपस्थित कर जो कुछ भी गया है उसका भी पूर्व में किया गया समाधान ही उत्तर है, प्रर्थात् वह अपनी मान्यता न बनावे | श्रागे उसने स. पू. २१६ में जो यह पृच्छा की है कि "अपर पक्ष ही बतलावे कि उक्त क्रिया ( रागमूलक और योगमूलक) के सिवाय श्रीर ऐसी शरीर की कौन सी क्रिया बनती है, जिसे मोक्ष का हेतु माना जाय ? सो इसका समाधान यह है कि परमार्थ से शरीर को तो नहीं, श्रात्मा की ज्ञान क्रिया श्रवश्य वचती है, जिसे साक्षात् मोक्ष का साधन माना गया है, शरीर की कोई भी परिणति तो निमित्त मात्र है । वाकी सब उसने जो प्रमाण दृष्टि और नय दृष्टि आदि के सम्वन्ध में अपने-अपने ढंग से ठीक कहने का प्रयोजन रखा है, वहीं उसका वह ढंग कौन है, इसे हम अभी तक नहीं समझ सके हैं । वह ढंग वास्तविक है या उपचरित है । यदि वास्तविक है तो वह किस वस्तु का अंश है । यदि उपचरित है तो वह सत्स्वरूप है या श्रसत्स्वरूप ? इन सब बातों पर उसी को प्रकाश डालना चाहिये, अन्यथा ऐसा लिखना शोभा नहीं देता । कथन नं. ८ ( स. २२० ) का समाधान : इस कथन में "बाह्य तरोपाधि" इत्यादि स्वयंभूस्तोत्र की कारिका के श्राधार पर जो हमने त. च. पृ. ८८ में भाव व्यक्त किया है, उसे समीक्षक ने यद्यपि मान्य तो कर लिया है, परन्तु साथ ही उसने जो बाह्य सामग्री की समग्रता को कार्य में कारणतारूप से भूतार्थ होने का विधान किया है, वह हमारी समझ के बाहर है, क्योंकि वह वाह्य सामग्री को अयथार्थ कारण मानते हुए भी उसकी सहायता को भृतार्थ मानता है । (देखो स. पू. - ४) जब कि हमारी दृष्टि में कोई किसी की सहायता नहीं करता, सब अपना-अपना कार्य करते हैं । मात्र कालप्रत्यासत्तिवश उनमें विवक्षा भेद से निमित्तनैमित्तिक भाव मान लिया जाता है । उदाहरणार्थ संसार रूप कार्य को ध्यान में रखकर जहाँ कर्म के उदय को कर्म के निमित्त से कहा जाता है, वहीं आत्मा के मोक्ष रूप कार्य को ध्यान में रखकर आत्मा के स्वाभाविक भावों को निमित्त कर कर्म के उदय, उदीरणा, उपशम और क्षयरूप कार्य को " निर्जरा" कहा जाता है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253