Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 200
________________ १६२ समझकर अपनी लेखनी चलाई है । लेखनी चलाने से पूर्व उसने कहीं पर भी यह समझने का प्रयास नहीं किया कि पूर्वपक्ष की अमुक विषय में क्या मान्यता है और वह अपने वक्तव्यों में क्या कह रहा है। यदि वह पूर्वपक्ष की मान्यताओं और उसके वक्तव्यों के अभिप्रायों को समझकर अपनी लेखनी चलाने की बात सोचता तो विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वह (उत्तरपक्ष) अपनी लेखनी अनर्गल ढंग से कदापि नहीं चलाता। उत्तरपक्ष द्वारा अनर्गल ढंग से लेखनी चलाने का यह परिणाम हुना है कि तत्वचर्चा अत्यधिक लम्वायमान हो गई है, और वह सार्थक भी नहीं हो सकी है।" यह समीक्षक की शिकायत है, जो उत्तरपक्ष के द्वारा लिखे गये समाधानों के आधार पर उसने व्यक्त की है। वास्तव में देखा जाय तो उसके भीतर का अभिप्राय अंधेरे में नहीं रहा, यह अच्छी बात हुई । यह तो स्पष्ट ही है कि उत्तरपक्ष व्यवहारनय के विपय को गौरण अर्थात अविवक्षित कर निश्चयनय के विषय को ही स्पष्ट करने के अभिप्राय से लिखने के लिए बाध्य था, जव कि उस पक्ष को निश्चयनय को न छोडते हुए व्यवहारनय के विषय को उपचार से स्पष्ट करना था, किन्तु वह (पूर्वपक्ष) इसमें सर्वथा असमर्थ रहा और उसने नंयायिक दर्शन के आधार से जनदर्गन के व्यवहार पक्ष को लिखना प्रारम्भ कर दिया। अन्यथा वह पक्ष (१) न तो बाह्य निमित्त का अर्थ यह लिखता कि जो उपादान का स्नेह करे वह निमित्त कहलाता है, न ही यह (२) लिखता कि जिसमें कार्य होता है उसे उपादान कहते हैं और न वह यही लिखता कि (३) प्रेरक वाह्य कारण के बल पर उपादान का कार्य आरोपीछे किया जा सकता है और न वह यहो लिखता कि (४) पर्याय को छोड़कर मात्र सामान्य द्रव्य उपादान होता है। जवकि जनदर्शन में अन्य द्रव्य के साथ निमित्त की कालप्रत्यासत्ति स्वीकार की गई है। साथ ही अव्यवहित पूर्वपर्याययुक्त द्रव्य को समर्थ उपादान कहा गया है। ऐसी अवस्था में उसका यह लिखना कि (५) पर्याय क्रमबद्ध भी होती है और अक्रमवद्ध भी । यह वही बताये कि यह जनदर्शन में कैसे स्वीकार किया जा सकता है । वह अपनी मान्यताओं को जनदर्शन कहता है, किन्तु वह जनदर्शन नहीं है। यह तो समीक्षक की कुछ ऐसी मान्यतायें हैं, जो जनदृष्टि से वाह्य तो हैं ही और कुछ ऐसी बातें हैं, जिनका जनदर्शन में स्वीकार करने पर कार्य-कारणभाव से मेल नहीं खाता । जैसा वह लिखता है कि व्यवहार (असद्भूत व्यवहारनय) कथंचिद् भूतार्थ है और कथचित् अभूतार्थ है। (६) निमित्तकारण अयथार्थ कारण होकर भी वह अन्य द्रव्य के कारण में सहायक होने के आधार पर भूतार्थ है। (७) प्रेरक निमित्त वे हैं, जिनके साथ कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती हैं और (८) उदासीन निमित्त वे हैं, जिनकी कार्य के साथ अन्वय और व्यतिरेक व्याप्तियां रहा करती हैं। (९) निमित्तों को सहयोग मिलने पर अन्य द्रव्यों की उपादान होते हुए कार्यरूप परिणति होना और उनके न मिलने पर उपादान होते हुए भी उसकी कार्यरूप परिणति न होना यह प्रेरक निमित्त का लक्षण है तथा (१०) उपादान के कार्यरूप परिणति में निमित्त होना और न होने..पर न होना यह उदासीन निमित्त का लक्षण है । इन दोनों लक्षणों में यह भेद दिखलाने के लिए ही पूर्वपक्ष ने समर्थ उपादान के प्रसिद्ध लक्षरण को न स्वीकार कर उसके स्थान में. (११) अन्य द्रव्य को उपादान का लक्षण, और

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