Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 239
________________ एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभिप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ॥ १५ ॥ पूर्ण ज्ञान स्वरूप नित्य जो वह आत्मा है, उसकी सिद्धि के इच्छुक पुरुषों के द्वारा साध्यसाधक भाव के भेद से दो तरह का होने पर भी एकरूप ही वह उपासना करने योग्य है । इसी बात को स्पष्ट करते हुए समयसार में भी कहा है -- दसणारचरितारिंग से विदव्वाणि साहुरगारिगच्चं । 'तारिंग पुणे जारण तिणि वि श्रप्पारगं चेव रिणच्छ्यदो ॥ १६ ॥ २०१ साधु पुरुष के द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र निरन्तर सेवन करने योग्य है | सद्भुत व्यवहारनय से ये तीन हैं, तो भी निश्चयनय से इन तीनों को एक आत्मा ही जानो । इसका आशय यह है कि साधु को इन तीन स्वरूप एक आत्मा की ही उपासना करनी चाहिये । " यह वस्तुस्थिति है । इसके होते हुए ज्ञानी के जो व्यवहाररत्नत्रय होता है, उसकी प्ररूपणा करते हुए पंचास्तिकाय गा. १६० की टीका में लिखा है कि यद्यपि उत्तम स्वर्ण की भांति शुद्ध जीव कथंचित् भिन्न साध्य-साधकं भाव के अभाव के कारणं स्वयं अपने आप भी शुद्ध स्वभाव रूप से परिणमित होता है, तथापि व्यवहाररत्नत्रय निश्चयमोक्षमार्ग के साघनपने को प्राप्त होता है । - आशय यह है कि आत्मा स्वयं ही निश्चय रत्नत्रयरूपं परिणमति होता है, तथापि प्रसद्भूत व्यवहारनय से व्यवहाररत्नत्रय को उसका साधन ( निमित्त ) कहा जाता है, क्योंकि इन दोनों में कालप्रत्यासत्ति देखी जाती है । टीका का वह अंश इस प्रकार है - : 1 " जात्यकार्तस्वरस्येव शुद्धजीवस्य कथंचद्भिन्नसाध्यसाधनभावाभावात्स्वयं शुद्धस्वभावेन विपरिणममानस्यापि निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनाभावमापद्यत इति ॥ १६० ॥ पंचास्तिकाय गाथा १५६ और १६१ का भी यही आशय है, क्योंकि निश्चयमोक्षमार्ग के काल में उस जीव के ऐसे ही प्रशस्त रागभाव का सद्भाव पाया जाता है, जिसमें व्यवहार मोक्षमार्ग का व्यवहार हो जाता है। अतः व्यवहार मोक्षमार्ग को निमित्त कहा जाता है और निश्चय मोक्षमार्ग को नैमित्तिक कहा जाता है । इन दोनों में साध्य-साधक भाव का ही त्राशय है । १. निश्चयधर्म स्वभावभूत आत्मा की प्राप्ति का नाम ही निश्चयधर्म है । सर्वप्रथम उसकी प्राप्ति स्वभावभूतात्मा के अवलम्वन से चौथे गुणस्थान में होती है । उसकी प्राप्ति का उपाय यह है कि श्रात्मा बुद्धिपूर्वक स्वयं आलम्वन द्वारा जव स्वभावभूत ग्रात्मा को प्राप्त करने के सन्मुख होता है, तब सर्वप्रथम नादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व और अनन्तानुवधी ४, इन पाँच प्रत्ययों के उपराम से उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और जिस समय जीव के इस सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, उसी समय

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