Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 247
________________ उस पक्ष नेत. च...पू. १३४ पर जो प्रमारण दिये हैं, उनमें एक प्रमाण आलापपद्धति का भी दिया गया है । उसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि "व्यवहारनय भेद को विषय करता है । भेद विवक्षा में एक ही वस्तु जिसका विषय है, वह श्रसद्द्भूत व्यवहार हैं। प्रमारण इस प्रकार है " ANT २०६ “व्यवहारो भेदविषयः, एक वस्तु विषयः सद्भूतव्यवहारः, भिन्न वस्तुविषयोऽ सद्भुत व्यवहारः ।” 15 यहां वह यह कह सकता है कि व्यवहारधर्म प्रशस्त रागरूप आत्मा की परिणति है, इसलिए उसे सद्भूतः व्यवहारनय का विषय मानने में क्या आपत्ति है ? समाधान यह है कि व्यवहारधर्म पराश्रितभाव है और निश्चयधर्म श्रात्माश्रित भाव है । इस श्रपेक्षा श्रात्माश्रित निश्चयधर्म से पराश्रित व्यवहारधर्म भिन्न वस्तु सिद्ध हो जाने के कारण उसे श्रात्मा का कहना असद्भूत व्यवहारसे ही सिद्ध होता है, सद्भूत व्यवहारनय से नहीं । - उस पक्ष ने ज. च. पू. १३४ में जितने भी प्रमाण दिये हैं, वे सब हमें स्वीकार हैं । उन्हें अस्वीकार कौन करता है? मात्र नय विभाग से उनकी स्थिति पर विचार किया जाता है तो को उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए । दुःख है कि गर्म के श्राशय को ग्रहण करता नहीं और L मनमानो टीका करने लगता है । इसे उसका दुस्साहस ही कहा जायगा । 2. *** यह तो उस पक्ष को ही देखना चाहिए कि जब : खानिया में तत्वचर्चा चली थी, तब उसके प्रथम दो दौरों तक ही उसके सहयोगी अन्य विद्वानों का सहयोग क्यों बना रहा और आगे तीसरे आदि दौरों में उन्होंने क्यों अपने को अलग करके, मौन धारण कर लिया और क्यों अकेले पं. बंशीधरजी पर छोड़ दिया, फिर भी अपने व्यक्तिगत बड़प्पन को बनाये रखने के लिए अपने मनोकल्पित विचारों को आगम का रूप देकर कुछ भी लिखते रहना यह उसके हठ का ही परिणाम है । दुःख है कि फिर भी वह चेतता नहीं और वस्तुस्थिति को समझकर अपने विचारों को बदलता नहीं । यह मूलसंघ के प्रतिस्थापक श्रद्धय कुन्दकुन्दाचार्य की जिनवाणी का अपलाप करने के सिवाय उसे और क्या कहा जायेगा ? इसका उस पक्ष को ही विचार करना है। 3717, P पः शुभाशुभ मोक्षबन्धमा तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलमयत्वादने कौ, केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म । .. " • हमने इसी प्रसंग को लेकर व्यवहारधर्म को स्वभावभूत आत्मा के धर्म होने का निपेध किया है, वह केवल इसीलिए ही किया है कि वह पराश्रित भाव है और स्वाश्रित भाव का प्रतिपक्षी होने से वह श्रात्मा का निजधर्म नहीं हो सकता । जैसा कि प्रा. अमृतचंद्रदेव ने पुण्यपाप अधिकार में गाथा १४३ की टीका करते हुए लिखा है ।" - """ " " तदनेकवे सत्यपि ... २ शुभ, मोक्षमार्ग और-अशुभ बन्धुमार्ग प्रत्येक केवल जीवमय और पुद्गलमय होने से अनेक है । अनेक होने पर भी केवल पुद्गलमय बन्धमार्ग के प्राश्रितपने से आश्रय के अभेद से कर्म एक है ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 245 246 247 248 249 250 251 252 253