Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 245
________________ २०७ शंका ४ के तीसरे दौर की समीक्षा का समाधान वह पक्ष और समीक्षा के लेखक ये दोनों एक ही हैं, ऐसी अवस्था में द्वितीय और तृतीय दौर तो समीक्षा में आते ही नहीं, उन्हें प्रतिशंका ही मानी जा सकती है। उस पक्ष ने इसे स्वीकार भी किया है, तएव यह चौथा दौर भी समीक्षा न होकर प्रतिशंका ही हो सकती है । हमने इसीरूप में उसे स्वीकार करके उसका समाधान किया है । १ व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म : हमने तृतीय दौर में व्यवहारघर्म निश्चयवर्म में साधक नहीं है, जो यह कथन किया है, वह परमार्थ को ध्यान में रखकर ही किया है । व्यवहार से आगम मे व्यवहार को निश्चयधर्मं का साधक अवश्य कहा गया है, पर वह मात्र उपचार कथन है । हमारे त. च. पृ. १४४ पर उपसंहार शीर्षक के अन्तर्गत हमने जो यह लिखा है कि " व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का अद्भूत व्यवहारनय से साधक होता है, वह ठीक ही लिखा है, क्योंकि व्यवहारधर्म प्राश्रित भाव है, जो स्वभाव की प्राप्ति में निश्चयधर्म का परमार्थं से साधक नहीं हो सकृता । दूसरे व्यवहारधर्मं स्वभावभूत आत्मा में सद्भूत नहीं है, इसलिए भी व्यवहारधर्म निश्चयधर्म का सद्भूतव्यवहारनय से साधक है, ऐसा जो उस पक्ष का कहना है, वह यथार्थ नहीं हैं ! जवकि व्यवहारधर्मं निश्चयधर्म की प्राप्ति के काल में ही होता है, ऐसी अवस्था में उसे निश्चयधर्म की उत्पत्ति में सहायक कहना उपचारमात्र है । निश्चयधर्म की प्राप्ति स्वभावभूत ग्रात्मा क्रे अवलम्वन से ही होती है, व्यवहारधर्म के अवलम्बन से नहीं, ऐसा आगम का नियम है । वह पक्ष अपनी हठ को छोड़कर जितने जल्दी इस तथ्य को समझेगा, उतना ही धर्म और समाज के हित में होगा । स पृ. २८६ में विवेचन शीर्षक के अन्तर्गत् हमने नियमसार की गाथाओं का जो स्पष्टीकरण किया था, वह यथार्थ है । आगम में कहीं भी तीन प्रकार की पर्यायें नहीं कही गई हैं । सभी पर्यायें दो ही प्रकार की होती हैं - स्वभावपर्याय और विभावपर्याय। स्वभाव पर्याय पर निरपेक्ष होती है और विभावर्याय स्व-पर सापेक्ष होती है । यहाँ परसापेक्ष का अर्थ पर में इष्टानिष्ट बुद्धि है और परनिरपेक्ष का अर्थ परमें उपेक्षावुद्धि है । कार्य-कारण भाव में यह अर्थ सर्वत्र जानना | नियमसार की उक्त तीन गाथाओं (१३, १४, २८) में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है | गाथा २८ में कहा गया है - स्वभावपर्याय अन्य निरपेक्ष होती है और पुद्गल स्कंध जो कि स्व पर सापेक्ष होता है, उसे विभात्रपर्याय कहा गया है । वहाँ इतना स्पष्ट होते हुए भी पूर्वपक्ष अपनी हठ को नहीं छोड़ना चाहता, इसका हमें खेद है । असद्भूत व्यवहारनय का विषय जितना भी व्यवहारधर्म होता है, उसका श्रात्मस्वभाव की अपेक्षा पर होने के कारण स्वभावभूत आत्मा में प्रसद्भूत होने से उसे आत्मा का कहना उपचरित ही होगा । जो विकल्परूप होने से उपचारित ही होता है ।

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